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________________ न T: ट # 헉 न स 1 a E 1 1 3 ३२४ करता है। इस तरहके विभाग काल भुज्यमान आप स्थितिके भीतर आठ बार आते हैं। यदि इनमें किसी भी त्रिभाग कालमें आयुका बन्ध न हो तो फिर आयु अन्तिम अन्तर्मुहुर्त कालके पहले असंक्षेपाद्वा कालमें उसका बन्द अवश्य हुआ करता है। जिय आयुका बन्ध हो जाता हैं उस गतिमें उस जीवको अवश्य ही जाना पड़ता है। हां, अयुकर्मका बन्ध होजानेपर उसकी स्थिति में जीवके परिवर्तित परिणामोंके अनुसार उत्कर्पण आकर्षण हो सकता है । च सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होनेके पूर्ण यदि उस जीवके किसी भी श्रायुका बन्ध नहीं हुआ है तो वद्धामुक सम्यग्दृष्टि है। यदि किसी भी श्रायुका बन्ध होगया है तो वह बद्धामुष्क सम्यग्दृष्टि है। ध्यान रहे -- श्रायुकर्मके चार भेद हैं। उनमें परभव योग्य किसी भी एक ही आयुका एक भवबन्ध होता है । इस तरहसे किसी भी संसारी जीवक कमसे कम एक ज्यमन आयुका और अधिक से अधिक परभव के योग्य किसी भी एक आयुक्त बन्ध होजानेपर दो आयुकर्मका अस्तित्व एक समयमें पाया जा सकता हूँ । अश्रद्धायुक सम्यग्दृष्टि जीव यदि मनुष्य या तियँच है तो वह देवायुका ही बन्थ क्रिया करता हैं और यदि वह देव या नारक है तो मनुष्य आयुका ही ग्रन्थ किया करता है । प्रकृत कारिका में जो वर्णन है, वह अबद्धायुक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से है। यह बात ऊपर कही जा चुकी हैं। फिर भी सम्यग्दृष्टि विषयमें यह समझ लेना आवश्यक है कि यदि उसने नरक आयुका बन्ध किया हो तो उसकी स्थिति सम्यक्त्व के प्रभाव से घटकर पहले नरक के योग्य ही रह जाती है और इसीलिये ऐसा सम्यक्त्वसहित जीव श्रेणिककी तरह प्रथम नरक वे आगे उत्खन्न नहीं हुआ करता । तिर्यगायुका या मनुष्य यायुका बन्ध करके सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला मनुष्य या त्रियंच मरकर भोगभूमिमें तिर्यक्पुरुष अथवा मनुष्य पुरुष ही हुआ करता है। यह भी सम्यक्त्वका ही माहात्म्य है । arraat area धका कारण नहीं है। वह तो संसारोच्छेदका ही कारण हैं । सम्यग्दृष्टि जीवके जो बन्न होता हैं, उसके कारण मिथ्यादर्शनसे अवशिष्ट अविरति प्रसाद काय भाव हैं। यह पर भी यह नहीं बताया है कि उसके अमुक अमुक कर्मका बन्ध हुआ करता है। जिन जिनं अवस्थाओं को वह प्राप्त नहीं किया करता उनका ही उल्लेख करके उन अवस्थाओंके योग्य कारणरूप जिन जिन कर्मोंका बन्ध वह नहीं किया करता उसका ही दिग्दर्शन कराया गया है । प्रश्न यह हो सकता है कि अनेक कर्मप्रकृतियों के यथा तीर्थकर और आहारक शरीर एवं व्याहारक भाङ्गोपाङ्गके बल्बका कारण तथा अनेकों पापप्रकृतियों की स्थिति अनुभागश किके १-लेस्सारा खलु सा वीसा हुंति तत्थ मज्मिम्म्या । आङगवन्घणजोग्गा अट्ठट्ठवगर सकालभव १८।। जां० का० ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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