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________________ efore devotee स्त्रोक ३२.३ जिन कुलोंमें परम्परासे चले जाते हैं उन्हें दारिद्रयोपेत ही समझना चाहिये । इस तरहके कुल में सम्यक्लसहित जीव उत्पन्न नहीं हुआ करता। धन वही प्रशंसनीय माना जा सकता है, जिसका क अर्जन कम से कम महापापरूप-संकल्पी हिं झूठ चोरी कुशल परिग्रहसे युक्त साधन के द्वारा न होता हो और जो विहित कर्मों के अविरुद्ध हो तथा वर्णसंकरता आदिके द्वारा राष्ट्र face at परिणामोंकी विशुद्धता एवं उदासताका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूपमें घातक न ही। जो इस लोकमें निंद्य और परलोकमें यथासंभव कल्याणका बाधक न हो । मतलब यह कि - सम्यग्दृष्टि जीवक मानसिक एवं आध्यात्मिक विशुद्धिकी अपूर्णता कारण अन्तरंग वासनाओंका संस्कार भी अपूर्ण ही प्रशस्तताको धारण कर लिया करता है; श्रतएव वह उसके विरुद्ध अप्रशस्त संस्कारों से युक्त सामाजिक कुलों को अपना जन्मक्षेत्र नहीं बनाया करता । श्रमतिकाः । - व्रतमस्ति येषां ते अनिनः । न प्रतिनः श्रवर्तिनः । त एव श्रतिकाः अथवा वत्तमस्ति येषु ते प्रतिकाः, न व्रतिका अश्रुतिकाः | यहांपर "छ" प्रत्यय जो की गई है उससे स्वार्थ तथा कुत्सा, अनुकम्पा, श्रम्प, दस्त, अर्थ ग्रहण किये जा सकते हैं। । इस निरुक्ति के अनुसार जो व्रतर हित हैं वे सब अत्रतिक हैं। यह "सम्यग्दर्शनशुद्धाः " का विशेषख पद हैं। दोनों पर्दाको मिलाकर चतुर्थ गुण स्थानवर्ती - श्रवतसम्यग्दृष्टि अर्थ होता है । यदि यह विशेषण न देकर केवल सम्यग्दर्शनशुद्धाः इतना ही कह दिया जाता तो उससे केवल चतुर्थ गुणस्थानवर्तीका ही नहीं, देशसंयमी, सकलसंयभी और सिद्धांतकका भी ग्रहण हो सकता था | परन्तु उन सबका यहापर ग्रहण करना अभीष्ट नहीं है । अतएव उनका धारण करने के लिये यह विशेषण दिया गया है। केवल यदि अत्रतिकाः ही कहा जाता तो उससे नीचे के प्रथम मिध्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानवर्तिका भी ग्रहण हो सकता था । अतः उनका वारण करनेके लिये सम्यग्दर्शनशुद्धाः ऐसा कहा गया है। दोनों पदोंका मिलाकर तरति किन्तु निर्मल सम्यग्दर्शनसे गुक्त इस तरहका अथवा किसी भी संयम - देशसंयम तथा सकलसंयमसे रहित अद्वायुष्क सम्यग्दृष्टि ऐसा अर्थ होता है । अपि (भी) शब्द प्रकृत अभिमत अर्थको दृढ करता है। जिससे मालुन होता है कि. बिना किसी सम्बन्यके हो केवल सम्यक्त्वकी निर्मलता हो जय इतने संसार और उसके कारणों का उच्छेद करने में समर्थ हैं, तब व्रतसम्बन्यको पाकर तो वह क्या नहीं कर सकती । अर्थात् सम्पूर्ण संसारका सहज ही वह निर्मूल विनाश कर सकती है । व्रजन्ति --ब्रज क्रियाका अर्थ प्राप्ति होता है । "न" यह निषेधार्थक है तात्पर्य - यह कि सम्यग्दर्शन के उत्पन्न हो जानेपर जीवकी दो अवस्थाएं पाई जा सकती हैं। १ मद्वायुष्क, २ भद्वायुष्क । एक आयुकर्म को छोड़कर शेष सातों ही कर्मोल पम्म संसारी जीवके प्रतिक्षण होता रहता है। आयुकर्मका पन्थ विभाग के समय ही हुआ १- वि० ० ० ३००, ३०५
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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