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________________ ३२९ व्याकरण के द्वन्द्वसमास प्रकरण में चार प्रकारका चार्थ बनाया गया है यथा-समुच्चय, अन्वाचय, इनरेतर और सभाहार। इनमें से अन्तिम दो अर्थोके अवसरपर तो द्वन्द्व समास होता है किन्तु प्रथन दो प्रनङ्ग में प्रयुक्त अनेक शब्दोंका समास न होकर केवल वाक्य का ही प्रयोग हा करता है। जिस वाक्यमें प्रयुक्त अनेक पद परस्पर में निरपेच रहकर किसी क्रियाके साथ समानरूपसे अन्वित हों वहां समुच्चय और जहाँपर उनमें से किसी एककी मुख्यता और दूसरेकी गौणता विवचित ही बड़ा अन्नाचय चार्थ माना जाता हैं । उदाहरणार्थ "देव मुहं च भजस्व" यहाँपर समुच्चय और "भिक्षामट गा चानय" यहांपर अन्नाचय चार्थ माना गया है । मालुम होता है कि ग्रन्थकार ने प्रकृत कारिकामें "च" शब्द का प्रयोग अन्वाचय अर्थमें किया है। क्योंकि विचार करनेसे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वार्ध कथित विषयोंका निषेष मुख्य और उच्चतर्षमें कथित चारों विषयोंका निषेध गौमा है । गौण कहनेका अर्थ यह नहीं है कि वह मम्यग्दृष्टि जिसके कि महत्त्वका यहां वर्णन किया जा रहा है कदाचित् इन दुष्कुल आदि चार अवस्थाओंको प्राप्त कर लिया करता या कर सकता है। किन्तु इसका आशय इतना ही है कि अबद्वायुष्क मम्यग्दृष्टिक जिस तरह उसकी बन्धयुच्छिन्न प्रकृतियोंमें नारक और तिर्यगागुको गिनाया गया है उस तरह मनुष्य आयुको नहीं। मतएव मागमके अनुसार सिद्ध है कि वह मनुष्य आयुका पन्ध करके मनुष्यगति में उत्पन्न हो सकता है। किन्तु नरकगति और तिर्यग्गति को तो वह सईया प्राप्त नहीं कर सकता । यद्यपि आगममें सम्यक्त्वको सम्यग्दृष्टिके परिणामविशेषोंको देव मायुके हो बंधका कारस बताया है। किन्तु यह कथन मनुष्य भीर तियचोंकी अपेवासे ही है। देव और नारक यदि अबदायुष्क सम्पन्दृष्टि हैं तो वे मनुष्य आयुका ही पंथ किया करते हैं । अतएव दुष्कुल आदि वाक्य के द्वारा जो निषेध किया गया है, वह गौग है। मालुम होता है कि ग्रन्थकार इस तरहसे भन्दाचयरूप चार्थके द्वारा निषेयक विषयमें बतलाना चाहते हैं कि-अरद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि जिस तरह नरक और तिर्यग गतिको सामान्यरूपमें भी प्राप्त नहीं किया करता; क्योंकि उसकी कारवा. भव कर्मप्रकृतियों का उसके मूल में वन्य नहीं हुआ करता, उस तरहसे मनुष्य गतिक विषयमें नहीं है। यह तयोग्य कोका बन्ध करके मनुष्यगको सो प्राक्ष कर सकता है परन्तु इ। उसमें वह दुष्मन श्रादि कथित निम्न अवस्थामोंको प्राप्त नहीं किया करता। अतएर जिस तरह नरक तियगति सामान्यतया निषिद्ध है उस तरह मनुष्यगति सामान्यतये। निषिद्ध नहीं है। मनुष्यगतिकी तो कुछ भवान्तर विशेष अवस्थाएं निषिद्ध है। तात्पर्य यह कि- मनुष्कमतिकी तो वह कथित दुष्कुल भादि प्रशस्त अवस्थामोंको भास नहीं होता। फिर वह मनुष्यगतिमें किस-किस तरहको अवस्थाओं को धारण किया करता है! तो यह बात आगे की कारिकामें कही जायगी, उससे इस प्रश्नका समाधान हो जायगा। १-साथ सूत्र अ०६ सूत्र न०२१
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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