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________________ M भन्द्रिका टोका पैतीसा श्लोक यहां ती केवल यि अवस्थाओं को री थानार्य बता रहे है, जिससे मालुम ही सके कि सम्यदर्शनके प्रकट होते ही इस जीवका दुःखमय और पापप्रचुर संसार किस तरह समाप्तप्राय हो जाता है और उसके कारण भी किस तरह व कहांतक निमूल हो जाया करते हैं । तथा अनन्सानन्त संसार किस तरह सावधिक रन जाया करता है। भवतिक शब्दका अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है। उससे यह तो स्पष्ट ही है कि इस शब्द का प्रयोग चतुर्थगुणस्थानी असंयत सम्यग्दृष्टि के लिये किया गया है। श्रागमन में कहा गया है कि जो न तो इन्द्रियों के विषयोंसे विरत है और न स स्थावर जीवोंकी हिंसासे विस्त है। परन्तु जो जिनोक्त विषयोंका श्रद्धान करनेवाला है यह अविरत सम्यग्दृष्टि है । इस लक्षा में चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टिके लिये जो इन्द्रिय संयम और प्राणायममे विरत न होनेकी बात कही गई है उसपरसे तत्त्वस्वरूप और आगमके रहस्यमे अनभिज्ञ कुछ लोग ऐसा मम बैठते हैं कि इस अर्गयत सम्यग्दृष्टिकी प्रवृत्तियों में और मि यादृष्टियोंकी प्रवृत्तियोंमें कोई अन्तर नहीं है। वह अनर्गल प्रवृत्ति करते हुए भी सम्यक्त्वसे रक्त रहता है, अथवा रह सकता है। परन्तु यह बात नहीं है । वास्तविक बात यह है कि--मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टिकी चेष्टाओंमें अद्भत अपूर्णता पाई जाती है । जिस तरह भागमोक्त लक्षण वाक्यमें "अपि' शब्दका प्रयोग किया गया है। उसी तरह यहोर अन्धकाने भी अपि शनका प्रयोग किया है इसलिये इम "अपि" का अर्थ भी ठोसा ही किया जा सकता है अथवा नसाही समझना अनुचित न होगा जैसाकि लक्षणगत "अपि" शब्दका आशय उपके टीकाकागेंन किया है। जीत्रकाण्डकी जीवप्रबोधिनी टीका इस "अपि" शब्द सम्यादाटक संवैमादि गों और अनुकम्पाभावको सूचित किया है । तथा मन्दप्रबोधिनी टीकाके कान लिखा है कि-सभ्य. दृष्टि जीवके अनुकम्पा आदि गुणोंका सद्भाय पाया जाता है इसलिये वह निरपराध हिंसा नहीं किया करता : पंडित टोडरमल जी सा० ने भी लिखा है कि "कोऊ बानेगा कि विपयनिधिय अविरति है ताते विषयानुरागी बहुत होगा सो नहीं है, सवेशादिगुण संयुक्त है। बहुरि हिंसादि विष अविरती है तात निर्दयी होगा सो नहीं है, दयाभाव संयुक्त ।।" । तात्पर्य इतना ही है कि--असंयत सम्यग्दृष्टिकी अविरतिका अर्थ पंचमादिगुण स्थानों में सम्भव देशवत अथवा महावतोंका न पाया जाना ही है। उसका यह प्राशय कदापि नहीं है कि उसकी प्रति अनर्गल हुआ करती है । यह पंचेन्द्रियोंके अन्यायपूर्ण विषय पर स्त्री-सेवन, वेश्यागमन, मद्य मांस मधुका भक्षण संकल्पी हिंसा झूठ चोरी आदि दुष्कर्म तथा बहु प्रारम्भ परिग्रहका धारण, अवर्णवाद, देवशास्त्र गुरु तस्वस्वरूप आदिके विषयमें विश्वासपात-बचकता प्रादि करते हुए भी वह सम्यक्त्वसहित रह सकता है, ऐसा यदि कोई समझे तो यह ठीक २- इंदियम विरदाणा जीवे धार नस वापि || ओ.सदहा जित -सम्माश्टी मावरदो पो ॥२६॥श्री
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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