SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रला रावकाचार नहीं है । यही बात अपि शब्दके द्वारा यहां सूचित होती है कि-यपि वह देशवन या महाबनसे यक्त नहीं है फिर भी इन आठ अवस्थाोंको प्राप्त नहीं किया करता । मतलब यह कि वह ऐसा कोई काम नहीं करता और न अन्तरंगमें उसके उन कामोंक करनेका भाव ही हुशा करता है जिनके कि करनेसे उपयुक्त १६+२५-३१ बन्धव्यच्छित्तिके योग्य कर्म प्रालयाका प्रास्त्र एवं बंधा होना माना गपा है और जिनका कि इस कारिकोक्त पाठ विषयाम संक्षेप अन्तमाव होजाना है। प्रागममें किन फिन कामोंके करनेस कोन कोनमें कर्मका आस्रव होता है यह बताया गया है, वहांसे यह जाना जा सकता है कि-इन पाठ विषयोंकि कारणभूत और इनमें जिनका अन्तर्भाव होजाता हे तथा इनसे जिन जिनका सम्बन्ध पाया जाता है उन ४१ कर्माके प्रास्त्रव एवं वक्फी कारण प्रवृत्तिगं कौन कौनसी हैं। ___यद्यपि प्रन्या स्वारके भपसे उन सभी ग्राम्रप एवं बन्धकी कारणभूत प्रवृत्तियोंका यहां वर्णन नहीं किया जा सकता। फिर भी प्रकरणगत विपयोंसे सम्बन्धित काँके प्रास्त्रपकी कारणभूत क्रियाओंका उदाहरणरूपम कुछ उल्लेख करते हुए दिग्दर्शन करादेना उचित और आवश्यक प्रवीत होता है। रेहत परमष्ठी, तीर्थकर भगवान् ,उनकी दिव्यदेशना, उनके उपदेशका अर्थावधारण करके ऋद्विधःदी मयवर देवके द्वारा शब्दरूप में रांचव द्वादशाङ्गश्रुन, उससे अविरुद्ध अथवा उसी आवारपर अन्य भारतीय आचार्योकं द्वारा निर्मित आगम ग्रन्थ, उनकं उपदिश्मीप मार्गका पालन करनेवाले मुनि प्रापिका श्रावक श्राविकाका चतुर्विध सब, निश्चय तथा व्यवहार मोबागम्य धर्म, और धर्मकं फत्तकै विषयमें असद्भूत दोष लगानसे दर्शनमोहनीय-मिथ्या. स्वकर्मका यात्रा हुमा करता है । तथा उत्पत्र भाषण करने और मागको सदोष बतानसे भी उसका प्रास्त्रबाहुमा करता है। स्पष्ट है कि ये क्रिपाए प्रथम गुणस्थानमें ही सम्भव हैं । क्यों कि उसके ऊपर दर्शनमोहकी बन्धच्छित्ति हो जानसे उसका पासव न होकर संकर ही पाया . जाता है। फलतः जो चगुणस्थानवी सम्यग्दृष्टि है उनमें ये क्रियाएं नहीं पाई जाती हैं तो निश्चय ही वह अन्तरंगमें मिथ्यादृष्टि है। इसी तरह शिलाभेद समान क्रोध आदि जिस वीयकपायके उदयस . सद्धर्भके, समीचीनतश्चके, प्रायतनों के विरोध, अवहेलना, जुगुप्सा आदि करने कराने आदमें प्रवृत्ति हुआ करती है उनास अनन्तानुबन्धी कमेका मानब हुया करता है। इन दोनों मातीस प्रयुक्त प्रचिकि रहते हुए जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हैं यह निश्चित समझना चाहिए । जहापर य नहीं है वहींपर सम्यग्दशनका अस्तित्व माना जा सकता है। और जो वास्तरम सम्पन्ष्ट है उनकं ही माहास्यका वरान यहांपर किया गया है कि वे नरकादि अत्रस्थान प्राप्त नहीं किया करते । इससे सिद्ध होता है कि इस कारिकाम कहे गये माहात्म्य की पात्रता अधिवरणभूत वे सम्पाट जीव ही माने जा सकत है जिनका कि सभ्यग्दर्शन उक्त सम्पतविरोधी परिणादेपोंकी अरविवारा प्रमाणित है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy