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________________ ३६ चन्द्रिका टोका पैंतीसवां श्लोक इसी तरह नारकत्व आदिके विषय में समझना चाहिये-- उत्कृष्ट - तीव्रमान, शिलामेदसमान शेष, मिध्यात्व, तीत्रलोभ, सतत निर्देवता और जीवघातकता, निरंतर मिथ्या भाषख, परस्वापहरण में नित्य प्रवृत्ति, सदा मैथुन सेवन, कामभोगाभिलाषायां की तीव्र गृद्धिका भाव प्रति समय बने रहना, जिन भगवानकी श्रसादना, साध्वाचारका विनाश, हिंसक पशुपक्षियों आदिमानव निश्शीचता, महान आरंभ और परिग्रह, कृष्णलेश्यारूप परिणत चतुर्विध रौद्रध्यान, युद्धमें मरने और पाप निमित्तक आहार में अभिरुचि, स्थिर बैर, क्रूरकर्मामें प्रसन्नता, धर्म द्वेष और अधर्मसे संतोष, साधुओं की दोष लगाना- उनसे मात्सर्य रखना, तथा निष्कारण रोष करना उनकी हत्या करना, मद्यपान, मांसभक्षण, मधुका सेवन आदि अनेक दुष्कर्मो के करनेवाले. करानेवाले अथवा अनुमोदना करनेवाले हैं उनके नरक आप नरकगति नरकगत्यानुपूर्वी कसका बन्ध हुआ करता है । मिथ्यात्वयुक्त अधर्मका उपदेश देना, महान् आरम्भ करना परिग्रह रखना तथा उनके लिये ठगई करना, कूटकम पृथ्वीभेदसमान रोष निःशीलता आदिके विषयमें दूसरेके साथ शाब्दिक अथवा चेष्टा द्वारा वंचकतापूर्ण प्रवृत्ति करना, माया प्रचुरकायोंमें अत्यासक्ति रखना, फूट डालना डलवाना, अनर्थ करना कराना, वर्ण गंध रस स्पर्शमें परिवर्तन करके उनका विक्रय आदि करना कराना, जातिशीलता कुलशीलता एवं सदाचार में दूषण लगाना लगवाना विसंवाद करना, ढोंगी जीवन विताना, दूसरेके सद्गुणोंका उच्छेद और अपने असद्गुणोंका ख्यापन करना कराना, नील और कपातलश्याक परिणामोंसे आर्तध्यान और वैसे परिणामोंसे मरण होना, इत्यादि और भी अनेक ऐसे कार्य करना जिनमें कि तीव्र माया परिणामोंका सम्बन्ध पाया जाता है, तिर्यगुभव के कारण हैं। ऐसे कृत्योंसे तिर्यगाथु तिर्यग्गति और तिर्यग्गत्यानुपूर्वी कमका व हुआ करता है। प्रचुर क्रोध मान माया लोभ रूप परिणामोंके द्वारा गुह्यं न्द्रियका व्यपरोपण- घात करना, स्त्री या पुरुषका अनङ्गक्रीडासम्बन्धी व्यसन, शील व्रत गुणोंके धारण और दीक्षाग्रहणका विरोध करना, दूसरेकी स्त्रीका अपहरण उसके साथ उस पर आक्रमण, उसके साथ बलात्कार आदि करना और तीव्र अनाचार आदिके कारण नपुंसक वेदकर्मका आव होता है। प्रकृष्ट क्रोध परिणाम, और अत्यन्त अभिमान में रहना, ईर्ष्यापूर्ण व्यापार करना, झूठ बोलने का स्वभाव, भोगोपभोगमं श्रस्यासक्ति, बहते हुए रागके द्वारा पराङ्कनागमन, प्रेम तथा १ -- कांत्रमागुरुकर्पूरकुकुमोत्पादनं तथा । तथा मानतुलादीनां कूटादीनां प्रवर्तनम् ॥२६॥ सुवर्णमोतिकादीनां प्रतिरूपकनिर्मितिः । वणगंधरसादीनामन्यथापादनं तथा ॥ ३७ ॥ तक्रतीरघृतादीनामन्क इव्यविभिश्रणम् । वाचान्यदुत्क्या करणमन्यस्य क्रियया तथा ॥ ३८ ॥ सा० ॥ ४ ॥ को बधिया करना करना आदि । २- पथा गायके पर
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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