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________________ अनगार? और भक्तों को धारण करने वाले तीनों ही आश्रमवासी -- ब्रह्मचारी गृहस्थ और वानप्रस्थ अगारीर-सागार कहे जाते हैं। अणुव्रतोंके ग्यारह स्थान हैं जिनकोकि ग्यारह प्रतिमा के नामसे कहा गया है और जिनका कि आगे चलकर इसी ग्रन्थमें निरूपण किया जायगा ! इनमें से आदिके ६ ग्रहस्थ उसके बाद तीन ब्रह्मचारी और अन्त के दो वानप्रस्थाश्रमी भिक्षुक कहे गये हैं । निरुक्त्यर्थ के अनुसार निश्चय नयसे सालंकार४ भाषा में क्वचित् कदाचित् अनगार महामतियों को भी गृहस्थ रूपमें कह दिया गया है फिर भी या तो अवती एवं पाचिक अथवा मुख्यतया छठी प्रतिमातक के व्रतोंको धारण करने वाले ही गृहस्थ माने गये हैं । और वे ही सर्वत्र -- श्रागममें और लोकमें गृहस्थ नाम से प्रसिद्ध है। क्योंकि गृहस्थाश्रम में विवाह दीक्षा विधिपूर्वक दारपरिग्रह य कार्य माना गया है। यद्यपि गृहप्रवृत्त श्रावकोंमें स्त्रीसम्बन्धका परित्याग करके अथवा बिना विवाह किये भी अपने व्रतोंका पालन करता हुआ ६ वीं प्रतिमा तकका श्रावक भी घर में रह सकता है। फिर भी गृहस्थाश्रम में मुख्यता विवाहपूर्वक वातकर्म I - अपनी अपनी जाति और वंशके योग्य न्यायपूर्वक श्राजीविका करने और नित्य नैमित्तिक धर्म fears विधिपूर्वक पालन करनेकी है । क्योंकि ५ प्रकारके वह्मचारियोंमेंसे केवल नैष्ठिक ब्रह्मचारीको छोडकर शेष चारों ही प्रकारके अह्मचारियोंको विवाहपूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रवेश करनेका अधिकार है और गृहस्थहो जानेपर वे नित्य एवं नैमित्तिक कर्तव्योंका पालन किया करते हैं । यद्यपि यहां पर ये जितने भी गृहस्थके कर्तव्य बताये गये हैं वे सत्र सत्य हैं, उचित हैं, और आवश्यक है। तथा यह भी ठीक है कि गृहस्थाश्रमीको अपने पदके योग्य इन सभी कर्तव्यों का पालन करना चाहिए फिर भी ग्रन्थकर्त्ता आचार्य इस कारिकाके द्वारा उसकी प्रकरण प्राप्त विशेषताको मोक्षमार्गस्थ और निर्मोह: इन दो विशेषणोंके द्वारा यह स्पष्ट करके बताना चाहते हैं कि चाहे तो कोई गृहमें रहकर अपने इन कर्तव्यों का पालन करनेवाला हो अथवा गृहस्थाश्रमको छोडकर शेष तीन आश्रमोंमेंसे किसी भी आश्रमके योग्य बतानुष्ठान करनेवाला क्यों न हो चाहे ब्रह्मचर्य या वानप्रस्थ आश्रमवाला हो, या महाव्रती मुनि हो, वह तब तक मोक्षमार्ग स्थित नहीं माना जा सकता जबतक कि वह अन्तरंग में निर्मोह नहीं है । १-२ त० सू० अ० ७ सूत्र नं० १६ तथा अगुतो गा” २०१ ३-- ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः । चत्वार आश्रमा एते सप्तमांगाद्विनिर्गताः । तथा यशस्तिलक - पडत्र गृहिणो ज्ञेयाश्रयः स्युम सचारिणः । भिक्षु द्वौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात् सर्वतो यतिः यशः || ८|| ४ - रूपक अलंकार । ५ --चान्तियोषित यो सतः सम्यग्ज्ञानातिथिप्रियः । स गृहस्थो भवेन्नूनं मनोदैवतसाधकः || यश भ० मा ६- प्रथमाश्रमिणः प्रोका ये पंचोपनयादयः । तेऽधीत्य शास्त्रं स्वीकुयु दरानन्यत्र नैष्ठिकात् ॥ -नित्मनः। मसिकानुष्ठानस्यो गृहस्थः ||१६|| मह्मदेव पत्रतिथिभूतया नित्यमनुञ्जानम् ॥९०॥
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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