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चन्द्रिका टीका मनोक
१६.२
गृहस्थ - शीत बात श्रातप यदिकी बाधा बचकर मनुष्य प्राणियों की रहने योग्य ईट चूना मट्टी लकडी यादिके द्वारा बने हुए आवास गृह कहते हैं । यह गृह शब्दक अर्थ लोकप्रसिद्ध है | व्याकरणके अनुसार ग्रह धातुसे अच् प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है कि ग्रहण करना, लेना, पकड़ना । अतएन यह शब्द साधारणतया जीवके सांसारिक विषयों में अन्तरंग की आसक्ति या ममभावको सथित करना है :
किन्तु देखा जाता है कि गृह आदि समय सम्बन्ध सर्वथा न रखने वाले भी ति मोक्षमार्गी महानुरूप उसमें शून्यगृह विमोचितावास मठ वातिका शादि क्वचित् कदाचित् रहते हुए पाये जाते हैं। तथा इसके विरुद्ध उसमें आसक्ति रखने वाले भी अनेक संसारी प्राणी उससे रहित हैं- पर छोडकर किंतु उससे ममता रखकर फिरचालोंकी संख्या भी कम नहीं है । फलतः अन्वयव्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार के कारण इस शब्दको केवल यौगिक न मानकर रूह श्रथा योग ही मानना उचित हैं ।
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गृहमें रहनेवालोंको कहते हैं गृहस्थ । यागमके अनुसार चार आश्रमोंमे द्वितीय श्रम कर्तव्य कर्मरूप धर्मका नाम है गृह और उसके पालन करने वालोंको कहते हैं गृहस्थ । इस आश्रम के कर्तव्यों में शेष तीन आश्रमवासियोंका मुख्यतया पालन पोषण संवर्धन तथा गीता अनाश्रमवासियों पर भी सदय व्यवहार के साथ साथ आत्महितके लिये किये जाने वाले अनेक कर्तव्यों से प्रवृत्तिरूप दो कार्य मुख्यतया बताये गये हैं--- पूजा और दान | इन दोनों कर्तव्योंके साधन रूपमें कान और दारपरिग्रह भी कर्तव्य बताया गया है जिसके कि ऊपर आयोजित क्रिया का रूप धर्मकी इमारत खडी हुई हैं। इस तरह द्वितीय आश्रमक धर्मका पालन करने वालेको कहते हैं गृहस्थ । गृही सागार आदि भी इसके पर्यायक शब्द हैं।
जहां तक गुणस्थानोंसे सम्बन्ध है गृहस्थ के आदि के पांच ही गुणस्थान हुआ करते हैं। परन्तु यह बात भी ध्यान में रहनी चाहियेकि इनके योग्य बाह्य द्रव्यरूप क्रिया प्रवृत्ति द्रव्यार्थिक एवं नैगमनय तथा द्रव्य निक्षेप और भावनिक्षेपकी पेक्षा भी मानी जा सकती है। श्रात्म धर्मरूप व्रत चारित्र दो ही भेद हैं और महाव्रत । महाव्रतको धारण करने वाले १- ब्रह्मचर्यं गृहस्थश्च वानप्रस्थच भिक्षुकः । चत्वार आश्रमा एते सप्तमांगताः । ३६वा २ - ५३ गर्भान्वय क्रियाएं, ४८ दीक्षान्त्रय क्रियाएं, धौर ७ अन्वय क्रियाएं। इस तरह तीन प्रकार की क्रियाएं आगम में बताई गई हैं। इसके लिए देखो परमागम श्रीभादिपुराण परनाम विषष्टशलामहापुरुष चरित्रके पर्व ३५ से ४० त० । ध्यान रहे इन कियाओं में जरूरी तक गृहस्थाश्रमका परित्याग नहीं किया जाता वहीं नक्की क्रियाओं का सम्बन्ध गृहस्थसे है ।
३ - सर्वतोऽमद्दती । त० सू० ७२ । य प ये व्रत आस्रवतश्वके वर्णन में बनाये गये हैं फिर मी " निःशल्यो अती के द्वारा इनकी आत्म धर्म रुपताकं होने पर ही मोक्षमार्गताकी मान्यता छ करदी गई है। जैसा कि इसी कारिकाके तात्पर्य से मालुम हो सकेगा ।