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________________ *∞ न बना रहता है कि मेरा इनसे कभी वियोग न हो जाय मैं कभी मर न जाऊ मैं सदाही जीवित रहूँ। इसी को कहते हैं मभ्य भयः । वज्रपात अभिदाह, भूकम्प, समुद्र में डूबने हवाई जहाजक गिरने आदि आकस्मिक दुर्घटनाओंका विचार कर उससे मेरा कभी विनाश न हो मैं सदा ठीक और अच्छी स्था ही बना रहूँ इस प्रकार जो चिंतातुरता या भयातुरता बनी रहती है उसको कहते हैं - कम्मिक भयः । इन सातों ही भयों का सम्बन्ध जतिक अन्य श्रद्धा अज्ञान अथवा अनन्तानुबन्धी कमाय के उदय से बना हुआ है और इन कारणोंसे ही ये उत्पन्न होते है वहां तक तो ये सभी मिथ्या दृष्टि के ही संभव हैं न कि सम्यम्टष्टिके, क्यों कि वह इन कारणों से सर्वथा रहित हैं । सम्यग्दर्शन गुणकी चार अवस्थाएं पाई जाती हैं। शुद्ध, अशुद्ध, मिश्र और अनुमय । चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवे गुणस्थानतक और सिद्ध पर्याय में सम्यग्दर्शनकी शुद्ध अवस्था है । और प्रथम मिध्यात्व गुणस्थान में अशुद्ध अवस्था है। तीसरे गुणस्थानमें मिश्र तथा दूसरे गुणस्थान में अनुभव अवस्था है । अतएव निःशंकता भी इसके अनुसार ही समझनी चाहिये। असंयत सम्पन्ष्टष्टि के क्षायोपशमिक सम्यक्त्व रहने पर सम्यग्दर्शन का मूलमें घात नही होता । सम्यक्त्व कर्म प्रकृतिके उदयके कारण कुछ समलता ही संभव है। अतएव मूल में वह भी निःशंक ही रहा करता है। न तो उसकी तच्चप्रतीति ही चलायमान होती है और न उसमें भयवश ही किसी तरह की सम्पता आया करती हैं। प्रश्न हो सकता हैं कि श्रेणिक महाराज क्षायिक असंयत सम्यग्दृष्टि थे उनको वह कौनसा म था जिसके कि कारण उन्होंने अपना घात कर लिया १ मिध्यादृष्टि के पाये जानेवाले इन सात भर्यो में क्या उनके कोई भी भय नहीं था ? यदि नही था तो इसका क्या कारण है ? उत्तर --- मिथ्यादृष्टि के जिस तरहका और जो भय पाया जाता है उस तरहका और वह भय श्रेणिक महाराज के नहीं था। जब उनके वे कारण ही नहीं रहे तब उनके उस तरह की कमाय और उसका कार्य भी किस तरह पाया जा सकता है। वास्तव में बात यह है कि सम्यक्त्व होनेके पहले उनके जो नरक आयुका वन्ध हो गया था उसके उदय का काल निकट आ जानेसे उनके इस तरह के परिणाम हुए तथा जिनसे कि संभावित पीड़ा सहन न कर सकने की मानसिक दुर्ब बाकी भावना उत्पन्न हुई और उससे बचने के लिए उपायान्तर को न देखकर श्रप्रत्यारूपानानरम क्रोध तीवोदयवश उस तरह की प्रवृत्ति हुई। ध्यान रहे-नरक में जानेके पूर्व प्रायः इसी तरह की कोई न कोई घटना होही जाया करती है। अरविंद का अपनी छुरीसेही वध हुआ । लक्ष्मण चाहते तो तलाश कर सकते थे अथवा स्वयं जाकर भी देख सकते थे कि रामचन्द्र की मृत्यु हो ६ - मृत्युः प्राणात्ययः प्राणाः कार्यवागिद्वियम् मनः । निश्वासोवासमायुश्च दशैते वाक्यविस्तराम||१३|| तद्भीतिर्जीवितं भूयान्मा भून्मे मरणम् क्वचित्। कदा लेभे नवा देवादिव्याधिः स्वे तनुष्यये । ५४०|| ७ - अकस्माज्जातमित्युचैरा करिमकभयं स्मृतम् । तथवा विशुदादीनां पातानुपात सुधारिणाम् ५४३॥ भीतिभु याद्यथा सोध्यं मामूद दौरां वापि ये । इत्येषं मानसी चिंता पर्याकुलितचेतसाम् २४४॥
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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