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त्रिका टीका. पच्चीसवा साफ
RE अपने घातक कर्म के उदयमें जाति भेद अथवा तारतम्यके कारण प्रत्यक्ष परोच भेद होते है। अथवा अपने उपयोग स्वरूप प्रकृतिम बाह्याभ्यन्तर निमिसों के अबलम्बनानवलम्बन भेद की अपेक्षा से भी प्रत्यक्ष परोक्ष भेद यद्वा मनि श्रुत आदि पांच भेद होजाते हैं । इसी तरह और भी प्रकार हो सकते हैं।
प्रकृतमें मदके साथ जिस ज्ञानका प्रयोग किया जाता है वह सराग एवं बायोपशमिक ही संभव है। जहांतक ज्ञान अल्प है तथा कषायके तीत्र उदयसे आक्रान्त है वहीं तक ज्ञान * विषयका मद होना शक्य है । अत एव सराग सायोपशमिक ज्ञान ही यहां पर ग्रहण करना चाहिये।
प्रश्न-शान. मदके होने की संभावना दो कारणों की उपस्थिति में मापने यहां बताई है.. एक शानकी अन्पता और दूसरी कषायोदयकी तीव्रता | सो पहला कारण तो ठीक है, क्योंकि ज्ञानावर कमेका उदय रहते हुए ही प्रजापरीषहरे पागम में बताई है । परन्तु इसरा कारण ठीक नहीं मालुम होता; क्योंकि संज्वलन ऋषायके मन्दोदय और सर्वथा अभावमें छमस्थ वीतराग भ्यक्तियोंके भी प्रक्षापरीषहका उल्लेख किया गया है। ___ उतर- ठीक है। परन्तु मोक्षशास्त्र में जहाँ परीपहोंका वर्णन किया गया है वहांपर मुख्यतया प्रतिपक्षी कर्मके सद्भावकी अपेक्षा है । न कि प्रतिरूप कार्यकी अपेक्षा । कारण के समापसे तथा भूतपूर्व प्रज्ञापनश्यकी अपेक्षा उपचार से वहां पर परीषहोंको बताया है। प्रत्यक्ष कार्य रूपमें वहां परीषह होती है यह आशय नहीं है। अत एव प्रज्ञापरीपहमें ज्ञानावरण कर्म का उदयरूप द्रव्यकासद्भावही वहां पर परीषहरूपसे विवक्षित है । हमारा यहां प्रयोजन प्रत्यक्ष व्यवहार में भानेवाली प्रवृतिसे है। सो यह बात बायोपशामिक ज्ञानके साथ कपाय के तीय उदयके सदूभावमें ही संभव है। कपायका जहां मन्द उदय है वहांपर भी संभव नहीं है ! क्योंकि यहां मदका प्रकरण है और सम्यग्दर्शन के दोषों का सम्बन्ध है जो कि ऊपर अशक्य हैं। मानमदमें शान सो विषय है उसके मदका जहां विचार है वहां कषायको भी किसी न किसी प्रकार से तीव्र ही मानना आवश्यक है। जहां उसका मूलमें ही अस्तित्व नहीं है वहां भूतप्रज्ञापन नय से
और जहाँ मन्द उदय है वहाँ केवल कारण के सद्भावमात्र की अपेक्षा से उसको कहा जा सकता है किन्तु जहाँ स्ल व्यवहार योग्य मद की विवक्षा है वहां तो कपायके तीन उदय अथवा उदीया को ही मानना उचित है।
१-ज्ञायोपमिकी प्रक्षा अन्यस्मिन मानावरणे सति मदं जनयति । न सकलावरणक्षये। स०सि० १.१३ २--"मानायरणे प्रशाहाने" त० सू० १-१३ ।। ३-सूक्ष्मसापरायछमस्थवीतरागयोश्चतुर्दश || त० सू० -१० ।। "हुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशयमानधालामरोगसणस्पर्शमलप्रशासानानि" स० मि। ४-जैसे कि सूक्ष्मसाम्परायमें।