SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ in - - - - - - - -- ---- ---- -- - चन्द्रिका टीका बालीमा लोक संसार पर्यायके अन्तिम सातक भी पना ही रहता है अतएव परमनिःश्रेगस शिवरूप माया में दी उनका पूर्ण अभाव होने के कारण उन दुभावों का भी प्रभाव बताया गया है। यही कारण है कि "शिव" का विशोकमयशङ्कम् विशेषण देकर उस पापको मात्रनिमिचक शोक मय शाखा श्रादि पाकुलताके भावोंसे भी सर्वथा रहित बताया गया है। और उस जोवपाश्री गोत्रकर्म का निःशेष ज्ञय पताकर गुरुता लघुता विषयक का पानिक कारण होनेवाले संक्लेशस पर्वथा दूर---असंस्पृष्ट शिवरूप पयाय ही सर्वथा पूर्ण निराकुल सुखस्वरूप है यह मभिप्राय सष्ट करदिया गया है। ___काप्ठागतभुखविद्याविभवम् ।-काष्ठा परमप्रकपं गताः प्राप्ता इति काष्ठागताः । सुखं च विद्या विभवश्चेति सुखद्याविभशः काष्ठागताः सुखविध विभवा यत्र । अथवा काप्ठामतः सुखविधयोविभवा यत्र तं काष्ठागत सुखविद्याविभवं प्रथात् उ. शिवपर्या में सुख विधा मौर विभव अथवा सुख और विधाका विभव परम प्रचषको प्राप्त होगया है, अथवा होजाना ।। इस जगह काष्ठागत या परम प्रर्पको प्राप्त करनेस मतला जिनके सम्पूर्ण त्रिमाग प्रतिच्छेद शुद्ध साभाविक अवस्था में परिणत होकर प्रकाशमान होगय है उन अनन्त वतुष्ट रूप गुणाका बतानका है। माइ.मक अभारस सुख सम्यक्त्म और ज्ञानावरकमका पय हा आनेस विधा-अनन्तनान ग्रहण करना चाहिये । शानका उपलक्षण मानकर उसके सहयारी दर्शनको मात करनवाले दर्शनावरण कम निमल होजानसे प्रकट हुए भनन्तदर्शनका भी विद्या शब्दसे ही ग्रहण कर लेना चाहिये। सिमा शब्दका भार्थ पृष्पकन वलाकर सुख और ज्ञानकी विभूति ऐसा बताया गया है। किन्तु इस इसे अनन्नवीर्य अथ भी लिभ जा सकता है। क्योंकि भवः-ससारका वि-विरुद्ध भाव ऐसा अर्थ ग्रहण करने पर और इस वातको दृष्टिमें लेने पर भव-संसर में भात्मबीर्थक्री मल्पता, उसका विच्छेद करने में आरमवीयंका कारण इस शब्दले वोर्गगुम का आशय लिया जा सकता है । क्योंकि चारित्रों द्वारा र्याचारके निमिषसे ही अविपक्षी काँका तय करके अनन्त चतुष्टयरूप यात्मगुणोंको प्रकट किया बाता है। इस तरह इस पदके द्वारा अपला अनन्नज्ञान अनन्तदर्शन अनन्त सुख शीर अनन्त वीर्गरूप निजगुणों की पूर्णतया उद्भूति शिवपर्या में ही हुआ करती है, यह भाशय प्रकट किया गया है। । यद्यपि सुख शब्दके जो चार१ अर्थ प्रसिद्ध हैं उनमें से मोखमम्मी सुख जो कि बास्तवमें आकुलताओं के अभावरूप है, चतुर्थ गुणस्थानवी संयतसम्यग्हप्टिसे लेकर प्रत्या केवली अरिहंत भगवान् नक सामान्यतया पाया जाता है और वह पूर्ण कारिका पाक्षित जीबमुक भवस्थामें अनन्त विशेषणसे युक्त भी है। फिर भी यहां पर धड़ सुख भव्या महा -विषये वेदनाभावे विपा मोल एव च । लोके चतुर्विहार्थेषु सुखशनः प्रयुब्यवे॥॥१० मार २-क्योंकि सभी बेनीवका मस्तित्व है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy