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रहनकरावकाचार किया जाए तो इनके शल्य अंतरंग कारण अपातिकम ही हैं, ५ स्पष्ट हो जाता है क्योंकि बीवभावोंके होने में मुख्य कारण मोहप्रमुख घातिकमाँका उदयादिक, और इनके विषयों--- विपाकाशयरूप शरीर तथा उससे सम्बन्धित अन्य सभी इटानिष्ट विषयों के लामालाभमें मुख्य अंतरंग कारण अपातिककर्मीका उदय ही है।
यों तो सामान्यतया सभी कर्मों तथा विशेषता अधातिककाँक फलोपभोग के लिये मुख्यतया अधिष्ठान शरीरती है जो कि नामकर्मके उदयानमार प्राप्त हुया करता है। फिर भी प्रकृत विषयको सामने रखकर यदि चारों अधाति ककि कार्गक विषयमें पृथक-पृथक विचार किया जाय तो मालुम होगा कि जिस तरह जरा और रुजा नामकर्म अनुसार; क्षय-मरखअनुचि-परख अथवा तयारण प्रायुक के अनुसार, पाराधा-क्षपदासा यादि संबंधी पाषाएं वेदनायकर्मक अनुसार प्राप्त हुया करती हैं जो कि सब शरीरसे ही संबंधित है उसी प्रकार भानुवंशिक पूज्यता प्रपूज्य ।। कीति अपकीरि प्रशस्तता अप्रशस्तता तथा गोन्यता अयोग्यताआत्मकल्याणमापनकी चमवा अदमता यादि भी गोत्रकर्मके अनुसार शरीर में ही प्रास कुमा१ करते हैं।
गोत्र फर्मके लक्षण कर्म आश्रय नोकर्म रयान्त पर ध्यान देनेसे गालुम हो सकता है कि प्रधापे गोधर्म जीवविपाकी है फिर भी उमा विपाकाशय शरीर ही है । तथा उसके दो भेदोंमें-उच्च नीच विकल्पोंमें इटानिष्टभाव भी, जब तक मोह साहचर्य बना हुआ है, भाये बिना रहता नहीं है। इसी प्रकार इष्टका वियोग होजान पर शोक, वर्तमानमें अनिष्टप्रसनकाय, तथा भविष्पमें कुलीनना नष्ट हुनकी शंका भी बनी ही रहती है। किन्तु मोह के निम्याण डोजाने पर जिस तरह मोदक ही सम्पन्य ने सुनाया फल देने में समर्थ अपातिकाँस नामका का कार्य-जरा और रोग, श्रायुकर्म का कार्य जन्ममरणकी परम्पराका मूल. भूत साधीन मायुकर्म का पन्ध, येहनीय कर्मका कार्य-चुधा आदि कार्यरूप बाधाएं नहीं गया करती; उसी प्रकार गोत्रकर्मका काय शरीर में कुलक्रम गत उच्चता सादिका विकल्प तथा उसके माश्रयसे ही होनेवाले शोक भय शंकाके भाव भी समाप्त होजाया करते हैं। फिर भी जब तक इन अपातिकमोंका उदय एवं विद्यमान है तब तक कारणके निमित होनेवाला कार्यका भी उपपरित बहार सर्वथा ममास नहीं माना जा सकता। और क्योंकि यह उदय एवं सम्म
-यह बात कही जा चुकी है.कि सजाति-प्रशस्त कुल-पिसृ पक्ष और जाति-मातृ पक्ष में सत्पन्न सुखा व्यक्ति की वीक्षा धारण करन का अधिकारी है। और इस तरह से वीक्षित विगम्बर जैन मुनि को निर्वाग प्राप्त कर सकता है।
...-०० का० "संताणकमेणागयजीवापरणत गोदमिदिमणा । उरचं गोचं घरणं पं णीचे दबे योरं ॥१॥ भवमस्सिय गीपि गोई णामपुरुवं तु ||१६|सालका रष्टान्त गा० न०२१||गूपते पादपये
मोगर।।