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पन्द्रिका टीका चालीसयां श्लाक अस्तिस्वकी तरफ दृष्टि रखने और दिलानेका है। क्योंकि जहांतक कारणका अस्तित्व है वहां तक उपचारसे कार्यका भी सद्भाव स्वीकार किया जा सकता है। परन्तु वह वास्तविक नहीं माना जा सकता | आदरस्थाको पार करके जो जीव पूणे शिवरूपको प्राप्त होता है वह उस बेदनीय कर्मके अस्तित्वसे भी शून्य है। यही कारण है कि व्यााष विशेषणके द्वारा उसकी सर्वथा निराकुल सुखरूपताको आचार्य ने यहां पर यताया है। अहंद्भगवानकं अनन्त चतुष्टयमें जो अनन्त सुख बताया गया है वह इसीलिये अव्याचाथ विशेषण विशिष्ट नहीं माना गया है कि वहां पर बाधाओं के कारणभूत वेदनीय कर्मका अस्तित्व पाया जाता है । यह विशेषण अधाति कर्मोंका भी क्षय होनेके अनन्तर सिद्धावस्थामें ही पाया जाता है। यही कारण है कि भगवान समन्तभद्रने सम्यग्दर्शन के अन्तिम फलरूपमें बताये गये इस परम निर्वाणरूप ससम परमस्थानके साथ ही इस विशेषणका प्रयोग करके उस शिवरूप अवस्थाकी समन्तभद्रता स्पष्ट की है।
विशोकभयशंकम्-शोकश्च भयश्च शंका चेति शोकभशंकाः। विगताः शोकमयर्शका यत्र, स तम् विशोकभयशंकम् ।
मसलब यह कि वह विवक्षित इष्ट शिवपर्याय शोक भय और शंका इन दुर्भानोंसे भी सर्वथा रहित है।
शोक नामक नोकपाय वेदनीयके उदयका निमित्त पाकर और इष्ट माने हुए पदार्थका वियोग होने पर जो परिताप होता है उसको शोक कहते हैं। भयनामक नोकषायके उदयके निमित्तसे दुर्वलताके कारण प्रवन अनिष्ट प्राप्त प्रसंगसे बचनेकी जो आकुलता हुआ करती है उसको भय कहते हैं। चलिताचलित--उभयकोटिस्पर्शी अनिश्चयरूप भाचोंको जो कि अमुक विषयमें क्या होगा, क्या नहीं होगा, कैसा होगा, आदि भविष्यको चिन्तारूपमें हुआ करते हैं उनको शंका कहते हैं । यद्यपि भय और शंका दोनों शब्द एकार्थकर भी हैं। परन्तु यहां पर दोनों ही शब्दोंका पाठ पाया जाता है अतएव उनका एक अर्थ न करके भिन्न-भिन्न अर्थ करना ही उचित है।
____ इस विपरमें जहांतक निमित्तभूत कर्मोंके उदयको अपेक्षाको मुख्यतया दृष्टिमें रखकर विचार किया जाता है वहां तक शोक भय शंकामेसे शोकका कारण शोकनामक नोकपायवेदनीय भयका कारण वीर्यान्तरायके उदयके साथ-साथ भयनामक नोकषाय, तथा शंकाका कारण मोह और प्रानावरण कमे है जैसा कि ऊररके कथनसे मालुम हो सकता है। परन्तु जब इनके विषय की तरफ मुख्यतया दृष्टि रखकर विचार किया जाता है अर्थात् शोक भय शंकाका भाव विध विषयोंके सम्बन्धको लेकर प्रवृत्त होता है उनकी तरफ मुख्यतया दृष्टि रखकर यदि विकार
शमी साम भीतिः ।। ।