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________________ ranniranatmannaadARAamaAmAAAIIM ३७२. रत्नकरण्डाकाचार नहीं है उस राज्यको प्रजाके प्राणादिके संरक्षणकी व्यवस्था का एक प्रकारमात्र अवश्य कहा जा सकता है। परन्तु वह धर्मराज्य नहीं है-वह परम स्थान नहीं है। ऐसे राज्योंकी अपरमस्थानताको व्यक्त करनेके लिये ही प्रास्तिक आचार्योंने कहा है कि "अन्यथा पुनर्नरकाय राज्यम् ? " | परम साम्राज्य परमस्थानका प्रयोजन चातुर्वर्ण्य और चातुराश्रमिक व्ययस्थाका संरक्षण करना है। जो कि मोन पुरुषार्थकी सिद्धिका एक बलवान असाधारण साधन है। गृहस्थावस्था में धर्म अर्थ काम इन तीनों पुरुषार्थीकार अथवा धर्म अर्थ और यशः इन तीनों पुरुषार्थोंका अविरोधेन सेवन करना भी धर्म माना गया है। परन्तु वास्तबमें यह धर्म तभी माना जा सकता है जबकि वह मोक्ष पुरुषार्थके अविरुद्ध हो जिसका कि प्रत्यक्ष साधन वर्णाश्रमव्यवस्था है । अतएव जिस राज्यके द्वारा इस व्यवस्थाका संरक्षण होता ई वास्तवमें यही परम साम्राज्य है । जी वैसा न करके मानव प्रकृतिको म्लेच्छाचारसे अभिभूत होने और माचार विचारमें पशुतुल्य होते जानेसे रोकने में असमर्थ है तो वह किंराज्य है। और यदि वह उसमें प्रेरक होता है तो यह सद्धर्म राज्य नहीं--पशुराज्य है। क्योंकि गुण रचणीय हैं और जो गण जितना अधिक महान असाधारण अद्भुत एवं स्वपरके लिये हिवरूप है वह उतना ही सर्वप्रथम आदरणीय तथा सर्वात्मना रक्षणीय है। जो राज्य उसकी होता कामा गइ ) ही जनपदकी उपेक्षा करता है। चक्रवतीक श्राभ्युदयिक पदकी महत्ता सर्वाधिक है। सीर्थकर और अरिहंतके सिवाय संसार में और कोई भी प्राभ्युदपिक पद इसकी महत्ताका अतिक्रमण नहीं कर सकते । जितने भी मटबद्ध राजा है ये सभी इसकी सेवा किया करते हैं। चक्रवर्तीको वे अपनी-अपनी कन्या माहि सार वस्तुएं भेंटमें देकर सम्बन्ध स्थापित करके भी उसकी भामा शिर पर धारण करते और उसका पालन किया करते हैं। समयका उनके लिये यही आदेश और उपदेश हुआ करता है कि राजाओंका कर्तम्भ कि १ कुल पालन २ महिपालन ३ आत्मपालन ४ प्रजापालन और ५ समंजस्वर इन पांच करच्योका अवश्य पालन करें । कुलोको भ्रष्ट न होने दें, सज्जातित्वका नाश न होने दें। पतिविवेकशक्तिको नष्ट न होने दें-म्लेच्छादिकों की शिक्षा दीक्षा संगति आदिके द्वारा प्रजाको १-नीतियाक्यामृत समुद्देश ६ सूश ४४ । २--धर्मार्थकामफलाय गन्याय नमः ॥ नीति वा० मंगल । ३-धर्म यशः शर्य स सेवमानाः कंप्येकशी जषिदुः कृतार्थम् । १-१४ सा०प०। ४-जनस्य वर्णाश्रमलक्षणस्यद्रव्योत्पत्तेर्वा पदं स्थानमित्ति जनपदः ॥ १८- नी० वा०। ५-प्राज्ञापन प्राप्त होने पर प्रथम शिर पर धारण करके फिर खोलकर पहनेकी पद्धति है। ६-अपक्षपातिनी वृत्ति।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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