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________________ घान्द्रका टीका चालीसवा श्लोक बिना प्रात्माका कोई भी ज्ञान चारित्र आदि गुण मोक्षमार्गमें सफल नहीं हो सकता। और विवक्षित मोचपुरुषार्थकी दृष्टि से ऐसा कोई भी पुण्यजनित आभ्युदपिक पद प्रशंसनीय एवं उपादेय नहीं माना जा सकता तथा न मुमुचु संतोंको अभीय ही है जो कि इस जीवात्माको निर्वाण की तरफ अग्रसर नहीं बनाता । फिर भी आगममें पुण्यरूप तथा पुण्यानुबन्धी क्रियाएं भीदान पूजा शास्त्रस्वाध्याय संयम तप गुरूपास्ति आदि आर्याचार एवं व्रत नियम आदि प्रात्म परिणाम भी धर्म तथा सम्यग्दर्शन-व्यवहार सम्यग्दर्शन माने गये हैं और नाये गये हैं क्योंकि वे सम्यक्त्वकी उत्पनिमें निमित्त हैं तथा अन्तरंग सद्भा सम्यग्दर्शनके ज्ञापक साधन है। सम्यग्दर्शनकी प्रधानताका कारण पहले वत:या जा चुका है । परन्तु सम्यक्त्व और चारित्रमेंसे एकको मुख्य दूसरेको गौण विवचाविशेषके कारण मान लेने पर भी सबसे बड़ी बात यह है कि प्राचार्योने चारित्रसे रहित सम्यग्दर्शनको नहीं किन्तु सम्यक्त्वरहित चारित्रको ही मोबमार्गमें अकिंचिरकर बताया है । यही कारण है कि प्राचायन यहां पर "दर्शनशरणाः" इस कत पदके द्वारा उन सम्यग्दृष्टियों को ही शिवपर्याय साधनमें स्वातन्त्र्य दिया है जिन्होंने किया तो पूर्ण प्रयत्न करके किसी भी प्रकार--मर पचकर भी एक बार दर्शनमोहके उदयको उपशान्त कर दिया है । अथवा जी सम्यक्त्व मौर चारित्र दोनोंसे युक्त होते हुए भी कदाचित् दुर्दैवके आक्रमणवश चारित्रमे च्युन होजाने पर सो सम्पलसे रिक्त नहीं हो सके हैं , जिनके सम्यक्त्वने अपने उस आराधकका हाथ नहीं छोडा है। ऐसे जीव यदि तवमोचमामी है वो उनके लिये तो इन भवान्तरमें प्राप्त होने वाले आभ्युदयिक पदोंक विषयमें कोई प्रश्न ही नहीं उठना परन्तु जी भवान्तरसे मोक्षको प्राप्त करनेवाले हैं उनकी दृष्टिसे और नाना जीवोंकी अपेक्षा से ही बताया गया है कि उनको मोष जानेसे पूर्व इस तरहके पद प्राप्त हुआ करते हैफिर भी यह ध्यान देने योग्य बात है कि इन कथित सम्यग्दर्शन के फलस्वरूप सप्त परमस्थानों से पादिके तीन और बहा परमाईन्त्य पद शिवपर्यायकी उपलब्धिमें ऐसे असाधारण कारण है कि जिनके बिना वह सिद्ध नहीं हो सकता । हां, यह ठीक है कि प्रथम तीन पद असमर्भ और छट्ठा पद समर्थ कारण है । सुरेन्द्रता और परमसाम्राज्य ये दोनों ही पररथान है, सभ्यमस्वके निमित्त और विशिष्ट सरागभावकै कारण सम्यग्दृष्टि जीवको प्राप्त होनेवाले ये संसारक प्राम्युदयिक स्थान तो अवश्य हैं; और यह बात भी सत्य है कि इन पदोंको प्राप्त करनेवाले बीब नियमसे निर्वाण प्राप्त किया करते हैं फिर भी निर्वाण परमस्थानकी सिद्धिमें इनको कारखवा प्राप्त नहीं है। क्योंकि कारण वे ही हुआ करते और माने गये है कि जिनके बिना कार्य उत्पम ही न होसके२ । ये दोनों ही पद ऐसे नहीं है कि इनके पिनर शिवपर्याय प्राप्त ही न हो। परन्तु १--दंषणभट्टा भट्टा सणभट्टीण णस्थि णिवाणं सिन्मति परियभट्टा समभट्टा ग सिझति ।। -मावामावास्या यस्योत्पत्यजुरपत्री संवत्कारकम् ॥
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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