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________________ A-ram ४०४ रत्नकररहमाचकाचार परमाईन्त्य पद ऐसा है कि तत्पूर्वक ही परमनिर्वाणकी प्राप्ति हुआ करती है । मीर भार्हन्स्य पद परम दिगम्बर जिनमुद्रा धारण करनेवाले तपस्त्री ही यथोक्त माधनोंके अबलम्पनसे प्राप्त कर सकते हैं। तथा इस दिगम्बर दीक्षाको वे ही धारण कर सकते और उसमें सवतः सफल हो सकते हैं जो कि सज्जातीय एवं सद्गृहस्थ हैं । इस तरह कारण परम्पराको अपेक्षा ये तीन परमस्थान निर्वाणस्थानकी सिद्धिमें बाह्य साधन हैं। साक्षात्कारण दोनों शुक्लष्यानों में समर्थ माईन्त्य पद ही है । इस तरह सुरेन्द्रता और परमपाम्राज्यके विषयमें यह नियम नहीं है कि जितने सम्यग्दृष्टि हैं वे सब इन आभ्युदयिक पदोंको प्राप्त हो ही, कोई इनमें से किसी भी एक पदको, तो कोई दोनों पदोंको प्राप्त करके भी संसारसे मुक्त हो सकते हैं। तथा कोई कोई तीनों पदों-सुरेन्द्रता चक्रपतित्व एवं तीर्थकरत्वको पाकर–उनको भोगकर फिर शिवरमणीके रमण बरते हैं। इसी बातको स्वयं ग्रन्थकार इस प्रथम अध्यायको पर्य करते हुए आगेकी अन्तिम कारिकाके द्वारा स्पष्ट करते हैंदेवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानम् ,१ राजेन्द्रनक्रमवनीन्द्रशिरोर्चनीयम् । धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकम् लब्ध्वा शिवं च जिनभक्ति रुगति भव्यः ॥४१॥ अर्थ-जिन भगान में है भक्ति जिसकी ऐसा सम्यग्दृष्टि भव्य पुरुष अप्रमाण सन्मानसे मुक देवेन्द्रोंके समूहकी महिमाको, पृथ्वीपतियों के द्वारा शिरसा पूजित राजेन्द्र-सम्राट-चक्रवर्ती के पदको अथवा यह पद जिसके द्वारा सिद्ध होता है ऐसे चक्र-सुदर्शन चक्रासको, और सम्पूर्ण लोकको अपने नीचे करने वाले धर्मेन्द्रोंके समूह अथवा धर्मचक्रको पाकर अन्तमें शिवपर्यायको आत हुआ करता है। __ प्रयोजन-यद्यपि इस कारिकामें उन्ही चार आभ्युदयिक पदोंका वर्णन किया गया है जिनका कि इसके पहले की चार कारिकाओंमें कथन हो चुका है। अतएव उन्हींका यहां उपसंहार रूपमें पुनः कथन कर दिया गया है ऐसा कहा जा सकता है। यह भी सत्य है कि धर्मोपदेशमें पुनरुक्तिका कोई दोष नहीं माना गया है। फिर भी ग्रन्थ और उसके काकी असाधारण माता की तरफ दृष्टि देते हुये विचार करने पर यह कथन संतोषकर नही मालूम होता | सम्पूर्ण उपासकाम्ययनका सारसंग्रह जिसमें किया गया है, उसमें अनावश्यक एक शब्द भी न मासके, जिससेकि उस शब्दकी जगह पर उपासकाध्ययनके अन्य किसीभी महत्त्वपूर्ण भावश्यक विषयको प्रकट करने के लिये शब्दान्तरको रखनमें बाधा उपस्थित होजाय, इस वातको अच्छी तरह ध्यानमें रखनेवाले शिवषिजयी जिनमक्त भगवान समन्तभद्र पूरे एक पथकी रचना कथित विषयका ही पुनः कपन करनेके लिये करके चर्वितचर्वण करनेमें चतुराईका परिचय दे पा उचित नहीं रखा। १-बसन्ततिलका अन्य "या बसन्ततिलकासशब -यक नामसः ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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