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________________ रनकरण्डश्रावकाचार को प्रगट करें। यद्यपि यहांपर परमार्थ शब्द आप्तादि तीनों के विशेषणरूपमें प्रयुक्त हुआ है; जैसा कि ऊपर बताया गपा है । टीकाकारों ने भी विशेषणरूप ही इसका अर्थ भी किया है। किन्तु इस विषय में हमारी समझ है कि यदि इस शब्दका स्वतन्त्र अर्थ भी कीया जाय तो कोई हानि अथवा आपत्ति नहीं मालूम होती । मतलब यह कि पर- सर्वोकृष्ट मा केवलज्ञान रूप अर्थ-निज प्रात्मद्रव्य या पदार्थ का अर्थात् ब्रानन्य सर्वोपाधिविविक्त निज शुद्रात्मद्रव्यका जो श्रद्धान उसको सम्यग्दर्शन कहते है ऐसा भी अर्थ किया जाय तो किसोतरह अनुचित असंगत एवं पाधित नही है। प्रत्युत एक विशेष अर्थका बोध होता है। इससे निश्चय और व्यवहाररूप साध्य माथन अवस्थाओं की तरफ भी लक्ष जाता है। क्योंकि निश्चयसे अपनी परमार्थ अवस्था साध्य है और व्यवहारसे उसके साधन प्राप्त आगम तपोभून हैं उन सभीका श्रद्धान हो तो वही समीचीन कार्यकारी हो सकता है। दूसरी बात यह कि इस शब्द को विशेषण रपसे मानकर ऊपर जैसा कुछ अर्थ किया गया है उसके सिवाय इसका आशय छह अनायतनों का कारण भी हो सकता है । यह अर्थ हमारी समझसे उचित और आवश्यक भी है । क्योंकि सम्यग्दर्शन के २५ मल? दोपों से ३ मूढ़ता ८ शंकादि दोष और ८ मद इस तरह १६ मलदोषों का ही यहां कण्ठोक्त उल्लेख पाया जाता है। शेष छह अनायतनोंका भी निर्देश होना चाहिये उसका बोध परमार्थ विशेषणसे कराया गया है ऐसा समझना चाहिये । अपरमार्थ भूत प्राप्तादि तीन और उनके ३ ही श्राश्रय इसतरह छह अनायतनोंकार निवारा भी इस विशेषण का अभिप्राय है ऐसा समझ में आता है। कारिका में प्रयक्त 'अन्य शब्दों-श्राप्त अागम तपोभूत, तीन मुहताएं, आठ अंग, और पाठ मदके अर्थका स्वर्ग ग्रन्थकार आगे चलकर उल्लेख करेंगे। अतएव इनके विषय में यहां अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है । संक्षिप्त आशय यह है कि प्राप्त शब्दका सामान्यतया प्रसिद्ध अर्थ यह है कि 'यो यत्रावञ्चकः स तत्र प्राप्तः। अर्थात जो जिस विषय में अकञ्चक है वह उस विषय में प्राप्त है। किंतु तात्पर्य यह है कि जिसने अपने वास्तविक गुणों के घातक चार घातियां कर्मोंको नष्ट करके अपने शुद्ध ज्ञानादि गुणोंको प्राप्त कर लिया है उसको कहते हैं प्राप्त | अन्य प्रकारसे प्राप्तपना बनही नहीं सकता यह बात स्वयं अन्धकार आगे चलकर कहने वाले हैं । भोर यह इसलिए भी ठीक है कि इसके बिना यह परमार्थतः अवञ्चक नहीं माना जा सकता । इसी तरह आगम का प्राशय भी यह है कि 'भा–समन्तात् गम्यते युध्यते वस्तु तवं येन यस्माद्वा । प्रत्येक दृष्टि से जिसके द्वारा समस्त वस्तु तस्वका पारज्ञान हो उसको कहते हैं पागम । क्योंकि श्रुतका विषय सामान्यतया केवलज्ञान की समकोटीमें बताया है, केवल प्रत्यक्ष और परोष का उनमें अन्तर है ऐसा आगम T R E..... . . - - -
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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