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मौद्रका टीका चौथा भोक उल्लेख से स्पष्ट होजाता है। क्योंकि परमार्थ और परमाध विशपर विशिष्ट आत आगम तयाभृतको विषय करने वाले श्रद्धानको ही यहां सम्यग्दर्शनका रू.क्षण इताया है कि सान सामान्यको अथवा अपरमार्थ विषयक श्रद्धानको।
आगममें प्रशम संवेग अनुकम्पा और सास्तिक्यको सम्यादानका लक्षण बताया है | यह भी अनन्तानुबन्धी कपायक उदयके प्रभाव से सम्बना रखता है। मतलब यह कि हनन्तानुबन्धी पायक उदगके अभावसे होने वाले प्रशमादिक भार ही वास्तवों सम्यग्दर्शनके लक्षण मान और ये ही संगत की। साथ ही इस शमादि भायोंसे युक्त आस्तिक्याने भी लक्षणमाना है उसी प्रकार श्रद्धानके विपयमें भी समझना चाहिये । अनेक द्रव्य मिथ्यादृष्टि साधुओं में क्रोधके अनुद्रेक को देखकर प्रशमभाव सम्यग्दर्शनका व्यभिचरित लक्षण कहा जा सकता है परन्तु उनमें पाय जाने वाले अनन्तानुरन्धी मानके भावको देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में बह लक्षण व्यभिचरित नहीं है । इसीतरह श्रद्धानके घिययमें भी घटित करलेना चाहिये।
परमार्थ शब्द ----श्रदान क्रियाके कर्मरूपमें कहे गये प्राप्त आगम और तपोभूतका विशपण है । यह अपरमार्थ भृन आप्तादिक श्रद्धानकी निवृत्ति इरता है साथ ही परमार्थभूत प्राप्तादिके स्वरूपका बोध भी संक्षेपमें बराता है। यह प्राप्तादि तीनोंका शेषण है । अर.एन हीनों में ही पटित हो तथा तीनोंके ही असाधारण गुण धर्मका जिससे बोध हो इस तरह से इसका अर्थ करना चाहिये । यथा
पर-उस्कृष्ट सर्वोत्कृष्ट है मा-प्रमाणरूप सर्वथा प्रमाणभूत केवल ज्ञान तथा अर्थ शुद्ध अशुद्ध आत्मद्रव्यादि प्रतिपादित विषय अथवा जिसके द्वारा उनका प्रतिपादन हो ऐसी दिव्यध्वनि पद्वा स्याद्वाद पद्धति जिनकी उनको कहते हैं परमार्थ । यह अर्थ प्राप्त की दृष्टि से करना चाहिये।
आगमके पक्ष में अर्थ शब्द से अभिषेय अर्थ लेना चाहिये । तथा तपस्वी-गुरुके अपेक्षासे अर्थ करनेमें अर्थ शब्द का प्रयोजन अर्थ करना चाहिये क्यों कि अभिधेय विषय-छह द्रव्य संत सच पंचास्तिकाय तथा नवपदार्थ सर्वोत्कृष्ट हैं वे पूर्वापर अविरुद्ध, प्रत्यक्ष और युक्तिसे प्रया. धित, मिथ्यामान्यताओंके विरुद्ध एवं इन्द्रादिकों द्वारा भी अनुलंध्य है। इसी प्रकार संसार पर्यायके विरुद्ध निर्वाण अवस्थाको सिद्ध करने के लिए बद्ध परिकर साधुओं का प्रयोजन भी सर्वोकृष्ट-सर्वथा विशुद्ध केवलज्ञानमय प्रात्मद्रव्यप अर्थ को सिद्ध करना ही है । इस तरह परमार्थ शब्द का अर्थ तीनों के ही साथ संगत होता है। और साथही उनकी असाधारणताको भी यह स्पष्ट करता है। विशेषण के प्रयोगका आशयभी यही है कि अपने विशेष्यकी विशेषता १-२-- रागानामन्द्रका प्रशमः संसागप॒रुता संवगः, सर्वप्राणिपु मैत्री अनुकम्पा। जीवादयोऽर्थाः यथावं सन्तीति मतिरास्तिकम् । राजबार्तिक । ३-अतस्त्रज्ञानके विषय में जो उनके अन्तरगमें श्राहंकारिक भाव और तत्वज्ञान के प्रति विचिकित्साकी भावना रहा करती है वह मिथ्यारष्टियोंके प्रशमको व्यभिचरित प्रमाणित करदेती है । देखो-श्लोक था।