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________________ ster टीका चालक ४६ में कहा गया हैं । तपोभूत शब्द का अर्थ है कि जो तप को धारण करें अथवा उसका पोषण करें | तपका आशय है कि जिसके द्वारा तपाया जाय जिस तरह श्रग्नि के द्वारा तपाया गया अशुद्ध सुवर्ण दोषोंसे रहित - पूर्णतया शुद्ध बन जाता हैं उसी तरह जिस क्रियाके द्वारा आत्मा अपने समस्त दोषों से रहित होकर सर्वथा विशुद्ध अवस्था को प्राप्त करले उसको कहते हैं उप इस तप का सामान्य स्वरूप मन शरीर और इन्द्रियों के प्रवृत्तिका विरोध है इसके द्वाराही संवर पूर्वक पूर्ववद्ध कर्मों की मुख्यतया निर्जरा हुआ करती हैं। मृढ़ता का अर्थ है कि मोड के उदय से आक्रांत अविवेक विशेष । इन तीन भेदों का वर्णन आगे किया जायगा । इन आठ अंगको छोडकर शरीर पृथक नहीं दिखाई देता उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं। समय नाम गर्व का है। यहां गर्व नानुबन्धो कषायसे सम्ब न्धित लेना चाहिये । इसके भी विषय की अपेक्षा आठ भेद हैं जिनका कि उल्लेख यागे किया जायगा । परमार्थ स्वरूप आप्तादिके विषय के श्रद्धानमें इनमें से तीनों मूढताओं तथा आठ मदों का सम्बन्ध नहीं रहा करता । और यदि रहता हैं तो वहां वास्तविक श्रद्धान अथवा सम्यग्दर्शन नहीं है, ऐसा समझना चाहिये । तात्पर्य -- यह कारिका जो कि सम्यग्दर्शन के लक्षण रूप है, इस स्थान पर अपना सर्वथा औचित्य रखती है । साथही यह लक्षण सर्वथा निर्दोष हैं श्रद्धानरूप क्रिया के कर्म रूपमे अथवा किया विशेष रूपमें जिन जिन शब्दों का प्रयोग किया हैं वे सब लक्षण में आनेवाले दोषों का वारण करने में समर्थ हैं उनके द्वारा संभव व्यभिचारों का निराकरण हो सकता है । सम्यग्दर्शनके अन्य स्थानोंपर जो भिन्न २ प्रकारके किये गये लक्ष्य उपलब्ध होते हैं उन सबका भी इसमें समावेश हो सकता है । परमार्थ शब्द आप्तादि तीनो का विशेषण है अब इस विशेषण के द्वारा तीनों की साधारणताका जिस तरह से बोध हो उस तरह से तीन अर्थ करना उचित एवं आवश्यक है । इसके सिवाय परमार्थ शब्द को विशेषण न मानकर श्रद्धानरूप क्रिया का सीधा कर्मरूप में ही माना जाय तो यह भी एक अवश्य ही उचित एवं संगत विषय है । श्रद्धान क्रिया के विशेषण दिये गये हैं वे दो प्रकारके हैं। एक विधिरूप और दो निषेधरूप पहला और तीसरा निषेधरूप हैं; और बीच का एक विधि रूप है। इस विधिरूप क्रियाविशेषण का देहलीदीपक न्याय से दोनों निषेधरूप क्रियाविशेषणों पर प्रकाश पडता है, जिसकी विधिही नहीं उसमें किसी भी विशिष्ट विषय का निषेध किसतरह संभव हो सकता हैं और किस तरह किया मिध्यात्व कुखान, और मिथ्या चरित्र इस तरह ३ और कुदेव कुशास्त्र तथा कुगुरु इस तरह ६ अनायतन होते हैं। इनमें मिध्यात्वादिका 'यदीयप्रत्यनीकानि' शब्दसे और बुदेवादि सौनका इस परमार्थ विशेषणसे महण कर लेने पर छह श्रनायतनों का भी संमह हो जाता है । १ - सुर- केवलें व शायं दोयणवि सरिसाण होंति बोहरदो । सुदुणा तु परोक्ष व पाय ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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