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________________ ५० रत्नकरण्डश्रावकाचार ....... AAAAAAAAAAAA---- जा सकता है। यही कारण है कि विधि को सूचित करनेवाला यह मध्यस्थ विशेषणही तीनोंमें मुख्य माना गया है यदि ऐसा न होता को आगे चलकर इन तीनो ही विशेषणांका जो वर्णन किया गया है उसमें प्राचार्यको क्रमभंग करनेका कोई कारण न था। किंतु हम देखते हैं कि प्राचार्य ने पहले पाठ अंगोंका वर्णन किया है और उसके बाद तीन मूढ़ताओं का और उसके बाद पाठ मदोंका वर्णन किया है इससे यही तात्पर्य निकलता है कि ग्रंथकारको विधिपूर्वक ही निषेध करना उचित अशीत होता है। ___ सम्यग्दर्शनको ग्रंथ कास्ने भिन्न २ अनेक शब्दोंके द्वारा इस ग्रंथमें भी सूचित किया है। यथा-सद्दष्टि ३, टान १, रुचि ११, श्रद्धा १२, गुणनीति १३, दृष्टि १४, दर्शन २१, सम्यग्दर्शन २८, धर्म २६, सम्यक ३२, निमोह ३३, जिनेन्द्रभक्त ३७, रपट घट ३८, दृष्ट्या सुनिश्चितार्थ ३६, दर्शन शरण ४०, जिनभक्त ४१, आदि इनमेंसे यहांपर श्रद्धान शब्दका पयोग है इस शब्दका क्या श्राशय है यह पहले लिखा जा चुका है परन्तु इन भिन्न २ शब्दों के प्रयोग का क्या अभिप्राय है, संक्षेपमें इस विषयमें भी यहां कुछ लिखना उचित प्रतीत होता है। सम्यग्दर्शन आत्माका एक ऐसा सर्वसामान्य गुण है जोकि कालिक अखण्ड अथवा निर्विकल्प सनरूप आत्मद्रव्य को, बिना किसी भी तरह के गुणधर्म अवस्था अथवा पर्याय की अपेक्षासे भेद किये विषय करता है । यही कारण है कि उसको निर्विकल्प अथवा अयस्तष्या कहा है। और इसीलिए उसका प्रभाव प्रात्माके सभी गुणधर्मा अथवा अवस्थाओंपर पहा करता है सम्यक्त्व सहचारी और मिथ्यात्व सहचारी गुणधर्मों अथवा अवस्थाओं के सामान्य स्वरूपको देखकर अथवा उसकी अपेक्षासे भलेही उनको व्यभिचारी मान लिया जाय और यह कह दिया जाय कि श्रद्धादिक सम्यक्त्व के अव्यभिचारी लक्षणरूप भाव नही हैं। परन्तु जब उनको लक्षणरूपमें कहा जाता है उस समय उसकी सम्यक्त्व सहचारिणी असाधारणता प्रकट करने के लिए जो विशेषण दिये जाते हैं उनकी तरफ खास करके दृष्टि देनेकी आवश्यकता है। उन विशेषणों के द्वारा जो विवचित लहरूप में कहे गये गुणधर्म या पर्याय अथवा अवस्था की विशेषताएं प्रकट की गई हों उनको साथ में लेकर विचार करनेपर वे गुण घमोदिक अश्या सरस्थाऐं अभ्यभिचरित मानी जा सकती है । यही बात यह कहे गये श्रद्धान लक्षणके विषय में समझनी चाहिये । श्रद्धानरूप क्रियाके परमार्थादिक कर्म तथा त्रिमूढापीढता आदि विशेषसों के द्वारा जो इसका असाधारणं स्वरूप प्रकट किया है वह निःसंदेह सम्यग्दर्शन के अव्यभिचारी लक्षणपने को प्रकट करता है। जो बात श्रद्धान के लिये है वही बात रुचि आदिक्के विषयमें भी समझनी चाहिये । जैसा ऊपर कहा गया है कि सम्यग्दर्शन का सामान्यतया आस्माके सभी गुण धर्मों पर प्रभाव पड़ता है तदनुसार एक श्रद्धान ही नहीं अपितु रुचि भादि सभी धर्म मम्बक्त्वक साहचर्य को प्रकट करनेवाले यथायोग्य तद्विशेषणों के द्वारा भव्यभिचारी लषयके अपमें कडे जा सकते हैं।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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