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________________ चंद्रिका टीका चौथा श्लोक आगममें सर्वत्र प्रशमादिक को तथा आस्तिक्यादि को सम्यकत्वका बोधक लक्षण माना है। यह भी कहा है कि छठे प्रमत्त गुणस्थान पयंतके जीवों को परकीय सम्यग्दर्शनका ज्ञान औषशामिआदि हेतुओं द्वारा अनुमानसे२ हो सकता है । ध्यान रहे यह अनुमान केवल अंदाज अथवा यभिचरित भाव नहीं है। अन्यथादुपा मीयोज हेतु के द्वारा होनेवाला अनुमान नामका सम्यग्नान है। हां ! कदाचित यह संभव है और कहा जा सकता है कि इस तरहका अनुमान यही व्यक्ति कर सकता है जिसको कि सम्यक्त्रसहचारी और मिथ्यात्व सहचारी प्रशमादिक अथवा श्रद्धा आस्तिक्य आदिके वैशिष्ट्य यद्वा अन्तरका स्वयं अनुभव है । क्योंकि स्वयं सम्यग्दृष्टि जीव ही इस तरह के साध्यसे अचिनाभाव रखने वाल हेतु के वास्तविक अन्तरको समझ सकता है। यही कारण है कि चौथे पांचवे व छठे गुणस्थानवाले जीवों के लियेही यह कहा गया है कि प्रशमादिक हेतुओं के द्वारा यह जीव दूसरेके भी सम्पन्दर्शन के भस्वित्वका अनु. मानसे ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। __ आगममें जहां श्रुतज्ञान को सकलादेश तथा विकलादेश इस तरह दो भागों में विमकिया है नहीं मकलादेशका अर्थ यह बताया है कि जो सम्पूर्ण वस्तु को विषय करे । अर्थात् एक गुण के द्वारा जो विकन्य या गुणभेद न करके पूर्ण वस्तुको प्राण किया जाय उसको कहते हैं सकलादेश अथवा प्रमाण । ऐसा कहने और करने का भी कारण यह है कि वास्तव में वस्त विधिप्रतिषेधात्मक अनन्त गुण धर्मों का प्रखण्ड-अविश्वग्भावी एवं प्रयुक्तसिद्ध पिंड है। इस तरह के द्रव्यके पूर्णस्वरूप का बोध कराने की शक्ति किसी भी शब्द में नहीं है। कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जो कि इस तरह के द्रव्यका पूर्णतया ज्ञान करामके । वह शब्द स्वभावतः अपने निश्चित अथवा संकेतित अर्थ या अर्थीकाही बोध करा सकता है ! ऐसी अवस्थामें द्रव्यके पूर्ण रूप का झान कराने के लिए इसके सिवाय और कोई मागभी नहीं है कि किसी भी गुणधर्म के नापक विवक्षित शब्दकी उस वाचकता को गौण करके उस धमसे संबन्धित सम्पूर्ण व्यका उसे वाचक बताया जाय । यही कारण है कि जीवादिक दव्यों को किसी भी योग्य गुणधर्मके वाचक शब्द द्वारा ही जताया जाता है। यही बात सम्यग्दर्शन के विषयमें समझनी चाहिये । सम्यग्दर्शन के प्रकट होतेही अाशाके सभी गुणधों पर अभूतपूर्व एवं असाधारण विशिष्ट प्रभाव पडा करता है। इन्हीं गुणधों में से को सम्यग्दर्शन का योग्य वोधक समझकर लक्षणरूपमें कहा जाता है। और उनकी उस अभूत पूर्व असाधारण विशिष्टता को विशेषणों द्वारा स्पष्ट कर दिया जाता है। यही बात ५-प्रशमाघभिव्यक्तलक्षणम् प्रथमम् (सराग मम्यक्त्वम्)। -अनगार धर्मामृत म०२-तैः स्वसंविदितैः सूक्ष्मलोभान्ताः स्वांश विदुः । प्रमवान्ता अन्यगा तज्जवा चेष्टानुमतेः पुनः ॥ ५३॥ ३-प्रकगुणमुसेन शेषवस्तुकयनं सकलादेशः । सकलादेशः प्रमाणाधीनः ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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