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________________ रन्तकारगनुश्रावकाचार ग्रहांपर भी समझनी चाहिये । सम्यग्दर्शनका बोध श्रद्धान शब्दके द्वारा कराते हुए साथमें कहे गये विशेषणों के द्वारा उसकी इस तरहकी असाधारणताका भी परिचय करा दिया है जिससे कि वह सम्यग्दर्शनका अध्याति अतिव्याप्ति और असंभव दोपोंसे रहित लक्षणवाक्य माना जा सके। ____ आप्तादि शब्दोंका सामान्यतया अर्थ यह है कि संसारातीत सिद्ध अवस्था जिस पदसे प्राप्त की जा सकती है उसको जिसने प्राप्त कर लिया है उसको कहते हैं प्राप्त । इमीतरह प्रत्येक पहलुसे शेय पदार्थ जिसके द्वारा जाना जासके उसको कहते हैं आगम | और कर्माकी असाधारण निर्जराके कारणभूत तपके करने वालों को कहते हैं तपस्त्री। किंतु यह सामान्य शब्दाथ है। जब तक इनके असाधारण स्वरूपको प्रकट करने वाले लक्षण न कहे जाय तब तक उनका यथेष्ट और निर्धान्त ज्ञान नहीं हो सकता। इस वातको ध्यान में रखकर प्राचार्य प्राप्त आदि तीनोंका यहां मानते लक्षण कहते हैं । अथवा तीनोंकी उस परमार्थनाको बताते हैं कि जिससे युक्त होने पर वे सम्यग्दर्शनके विषय कहे जासकते हैं। यद्वा जिन २ विशेषणांसे युक्त आप्तादिका श्रद्धान सम्यग्दर्शन माना जा सकता है उनमें सबसे प्रथम क्रमानुसार ५ कारिकाओं में प्राप्त के स्वरूपका प्रतिपादन करते हैं। प्राप्नोत्सन्नदोषेण १ सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत ॥५॥ सामान्य अर्थ-निश् वयसे याप्तको उत्सन्नदोष (छूट गये हैं समस्त दोष जिसके ऐसा)और सर्वज्ञ नथा आगमका ईश होना चाहिये । क्योंकि इसके सिवाय अन्य प्रकारसे आप्तपना बन नहीं सकता। प्रयोजन- इस कारिका निर्माणका वास्तविक प्रयोजन क्या है, इस सम्बन्धमें यहां अधिक लिखनेकी आवश्यकता नहीं मालुम होती। क्योंकि इस विषयमें कारिकाकी उत्थानिकामें ही कहा जा चुका है कि उक्त सम्यग्दर्शनके लक्षण श्रद्वानरूप कियाके कर्मरूपमें जिन प्राप्त श्रागम और तपस्वीका उल्लेख किया है उनका क्रमसे इस तरहका वर्णन करना जरूरी है कि जिस से उसकी परमार्थवाका बोध हो सके। श्रीनाओंको गह भले प्रकार परिशान हो सके कि सम्यग्दर्शनके विषयभूत प्राप्तादि किस तरहके होने चाहिये । यद्वा किनर आधिारण विशेषताओंसे युक्त आप्तादिके श्रद्वानको सम्पादर्शन कहा जा सकता है । ऐसी अवस्थामें श्रद्धानरूप सम्प-- दशनके विषयभूत प्राप्तादिकी ये असाधारण विशेषतायें बताना भाश्यक हो जाता है । उनको स्पष्ट करके यह कारिका अपनी प्रयोजनवताको स्वयं दिखादेती है। दूसरी बात यह है कि जगत्में भिन्नर सम्प्रदायवालोंने आपका स्वरूप भी मिअर प्रकारसे ही माना है । यद्यपि ये मान्यताऐ अनेक है; फिरभी इनको सामान्यतया सात भागोंमें विभक्त १-उछिन्नदोपण इत्यपि पाठः ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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