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________________ - - - - - - - -- - - - - चद्रिका टीका चौदहवां श्लोक के नहीं पाया जा सकता। मिथ्याष्टियों द्वारा महिला करता है । सम्माधि माती पर बना एवं विवेकी हुआ करता है । अतएव किसीके दोपको किसीभी दूसरे के मत्थे महनेका अन्धेर नगरी जैसा अविवेक और अन्यायपूर्ण कार्य नहीं कर सकता । प्रत्युत कीच अथवा मलमें पडे हुए सुवर्णको ग्रहण करने की समुचित प्रवृत्तिकैर समान स्वभावतः अशुचि शरीर में विद्यमान रत्नत्रयरूप धर्म में समादर तथा प्राति भक्ति और रुचिही धारण किया करता है। ऐसा होनेसे ही उसका सम्यग्दशन निविचिकित्सांगसे युक्त माना जाना और वह अपने वास्तविक फल के देने में समर्थ हो सकता है। मुक्तिरमणीके गुणों की तरफ, विरोधी के दोषोंके कारण उपेक्षा करनेवाला-प्रीति न करनेवाला उसका स्नेहभाजन किस तरह हो सकता है । वह उसका प्रेम पूर्वक किस तरह आलिंगन कर सकता है। अत्र क्रमानुसार सम्यग्दर्शन के चौथे अंग अमूढ दृष्टि नामका वर्णन करते हैं कापथे पथि दुःखाना कापथस्थेऽप्यसम्मतिः । असंयक्तिरनुकीर्तिरमूढा दृष्टिरुच्यते ॥ १४ ॥ भर्थ-जो दुःखों का मार्गरूप है ऐसे कापथ-खोटे मार्ग-उपायमें एवं उस मार्गपर चलन वालाोंके प्रति सम्मानका भाव न रखना उनको सत्य न समझना उनसे सम्पर्क न रखना और उनकी प्रशंसा न करना सम्यग्दर्शन की अमूढता कही गई है । १-इस विषय में निम्नलिखित वाक्य और श्लोक दृष्टव्य है--अन्त: कलुपदोषादसद्भवमलोद्भावनसवर्णवादः शुद्धत्वाशुचित्वाशाविर्भावनम् संघे । (श्लो० वा०६-१३ तथा राजवार्तिक ६-१३, ७-१०) तपरतीन जिनेन्द्राणां नेदसंवादिमन्दिरम् । आगो पत्रादि चेत्येवं चेतः स्याद्विचिकित्सना । स्वस्यैव हि स दोपोऽयं यन्न शक्तः श्रुताश्रयम् । शीलमाश्रयितु जन्तुस्तदर्थ वा निबोधितुम!i स्वतःशुद्धपि व्योम वीक्षते यन्मलीमसम् । नासी दोषोऽस्य किंतु स्यात्स दोपश्चक्षुराश्रयः ।। दर्शनादेहदोषस्य यग्तत्वाय जुगुप्सतं । स लोहे का लिालोकान्नूनं मुञ्चति कामचनम् ।। स्वस्यान्यस्य च कायोऽयं बहिरछायामनोहरः । अन्तर्विचार्यमाणः स्यादीटुम्बरफलोपमः ।। ततिा च दहे च याथात्म्यं पश्यतां सतां । वेगाय कथं नाम चित्तवृत्तिः प्रवर्तताम् ।। (यश०६-1) तथा-प्रमज्जनमनाचामो नग्नत्वं स्थितिभोजिता । मिथ्याशो बदन्त्येतन्मुनेषचतुष्टयं । तत्रैष समाधिः-ब्रह्मचर्योपपन्नानामध्यात्माचारचेतसाम् । मुनीनां स्नानमप्राप्त दोष त्वस्य विधिर्मतः।। संगे कापालिकानयोचाण्डालशबरादिभिः । प्राप्लुत्य दण्डवत् सम्यक् जपेन्मंत्रमुपोषितः ।। एकान्तरं त्रिरा वा कृत्या स्नात्वा चतुर्थके । दिन शुध्यन्त्यसन्हमृती इतगताः स्नियः ॥ यदेवांगमशुद्धं स्यादन्तिः शोभ्यं तदेव हि । अंगुली सर्पदष्टायां न हि नासा निकल्यते ।। निष्यन्दाशिवधी वो यद्यपूतत्वमिध्यते । तर्हि वस्त्रापवित्रत्वं शौचं नारभ्यते कुतः ।। विकारे विदुषां द्वेषो नाविकारानुवर्तने | तन्नमस्त्रे निसर्गोत्थे को नाम द्वेषकल्मषः ॥ नैकिचन्यमहिंसा च वृत्तः संयमिनां भवेत् । ते संगाय यहीहन्त वल्कलाजिनवाससाम ।। न स्वर्गाय स्थितेभुक्तिन श्वभ्रायास्थितः पुनः । किंतु संयमिलोकेस्मिन् सा प्रतिहामियत । पाणिपात्रं मिलत्येतच्लकिश्च स्थितिभोजने । यावचावाहं भुज रहाम्यावारमन्यथा ।। अन्यासंग वैराग्यपरिवहकृते कृतः । अतएव यतीशानां केशापाटनसविधि || यश -पर्यों अपाबन ठौर में कंचन राजे न कोय । कोकोक्ति।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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