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________________ १७४............ त्निकरण्डश्रावकाचार ................... भगयानका आशीर्वाद संदेश कहा और प्रशंसा की। रेवतीने गधाविधि उसी दिशाकी तरफ सात पैड चल कर भक्तिपूर्वक नमस्कार करके आशीरि ग्रहण किया । वरुण राजा शिवकीर्ति पुत्र को राज्य देकर दीक्षा लेकर तपके प्रभावस माहेन्द्र स्वगो और रेवती रानी तपश्चरण कर ब्रह्म स्वर्गमें देव हुए । यतीके विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है। भागतेष्वप्यभून पा रेवती मूढतावती ॥ कादम्प-तार्थ---गो-सिंहपीठाधिपतिषु स्वयम् । जिनेन्द्रभक्त साराष्ट्रदेशके पाटलिपुत्र नामक नगरका राजा यशीध्वज, रानी सुसीमा । उनका सुवीर नामका एक पुत्र था जो कि विद्यावृद्ध पुरुषों की संपति-शिवासे रहित होनेके कारख अस्यन्त व्यसनी बनगया था। परस्त्री और पर धनके लम्पटरी उस सुत्रीरने एक दिन अपनी गोष्ठी में कहा कि पूर्वदेशके गौडप्रान्तकी ताम्रलिप्त नगरीक जिनेन्द्रभक्त सेठ के सतखने महलके ऊपर पाश्वनाथका बस्यालय है। अनेक रक्षकों से सुरक्षित उस पल्यालयों भगवान के ऊपर लगे हुए छत्र में अमूल्य बैडर्य मणि लगी हुई है। आपमेसे जो कोई उस मणि को चुरा लाकर देगा उसको यथेष्ट पुरस्कार दिया जायगा । यह सुनकर एक सूर्यनामका चोरों का अग्रणी अपनी शक्तिकी स्वयं प्रशंसा करते हुए बोला "यह क्या पड़ी बात है ?" और यहांसे चलकर गोडदेशमें पहुंचा। उक्त चैत्यालयतक पहुंचनेका अन्य कोई भी उपाय न देखकर खुलक बनगया | अनेकविध व्रत उपवास श्रादि के द्वारा गांव २ में नगर २ में ख्याति प्राप्त करता हुआ जिनेन्द्रभक्तके यहां पहुंचा । एकान्ततः भक्तिमें अनुरक्त सेठरे अपने वैत्यालयमें उसको रक्खा । एक दिन सेठने कहा-देशस्तीश ! मैं देशान्तर जाना चाहता हूँ। मैं जब तक यायिम न पाऊ तब तक आप यहीं रहें । धुल्लकवेशी सूर्यचोरने कहा--नहीं २ सेठ ! यह ठीक नहीं है। स्त्रियों से और सम्पसियों से युक्त हसस्थानमें विरत पुरुषोंका रहना उचित नहीं है । परन्तु सैठके आग्रहपर उसने रहना स्वीकार कर लिया ! सेठ शुभ मुहूर्तमें यात्रा करके नगरके बाहर आकर ठहरगया। इसी दिन अर्ध रात्री को मौका देखकर उक्त रनको लेकर वह चलता बना । किन्तु रनकी प्रभासे उसे चोर जानकर रखकलोगों ने उसका पीछा किया। भागने में असमर्थ वह मायावी, सेठके निवास स्थान में ही घुनगया । होहल्लासे जागकर सेठने उसको चोर समझ कर भी यह सोचकर कि दूसरे सच्चे धर्मात्माओंका तथा धर्मका अज्ञानीजनोंके द्वारा अपवाद न हो, लोंगोंसे कहा कि अरे रे ! इसको क्यों अभद्रशब्द कहते और तंग करते हो। मेरे कहनेसे ही ये तो इस रत को लाये हैं। तुम इनको चौर कहते हो यह ठीक नहीं है । सब लोग सेठ की बात प्रमाण मानकर चलेगये. पीछे सेठ ने उसको रात्रि को ही निकालकर भगादिया । इसी प्राशयले कहा है किमायासंयमनोत्सूर्ये सूर्ये स्नापहारिणि । दोष निषूदयामास जिनेन्द्रो भक्तवाकारः ।। वारिषेण मगध देशमें राजगृह नामका नगर जिसको पंचशैलपुर भी कहते हैं। वहां के राजा श्रेणिक
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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