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________________ श्राद्य निवेदन 14 नकर पडभावका बार " दि० जैन समाजका सुप्रसिद्ध एवं अपने विषयका अन्त महान प्रन्थराज है । इसके रचयिता भगवान् समन्तभद्रस्वामी हैं । यह श्रावकाचार उपासकाध्ययन नामसे भी प्रसिद्ध है । इसका मुख्य विषय एकदेश मोक्षमार्ग-रत्नत्रय धर्म का वर्णन करना है । आगम में श्रावक पद प्रायः नैष्ठिक भावक के लिये ही प्रयुक्त हुआ करता है। कोई भी संगमस्थान अथवा संयमासंयमस्थ न अन्तरंगमें सम्यदर्शन तथा सम्यग्ज्ञान के हुए बिना संवर निर्जंग एवं मोक्षत्व के साधनका कार्य करने में असमर्थ है। अत पव चाचाने नैष्टिकके प्रतिमारूप का वर्णन करनेसे पूर्व इन दो रत्नोंका-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका भी सबसे पहले वर्णन करना उचित समझकर क्रमसे प्रथम दो अध्यायों से कीया हैं । इस प्रथम अध्यायमें सम्म ग्दर्शनके लक्षण, विषय, गुण, दोष और नैःश्रेयस तथा श्राभ्युदयिक फलका वर्णन है यद्यपि सम्यग्दर्शन विषय अत्यधिक महान है किन्तु श्रावकपद में प्रवेश करने के लिये उसका आवश्यक सार आचार्यने यहां पर ४१ पश्च में संगृहीत कीया है जबकि आगे द्वितीय अध्याय में सम्यग्ज्ञानके विशाल विषयका निर्देश इस अध्याय के प्रमाणसे आठवे भागसे भी कम केवल ४ पद्य में ही किया है। ऐसा मालुम होता है कि अन्यकर्ता भगवान् समन्तभद्र सम्यग्दर्शन (मम्यग्दृष्टि ) के दश मेत्रों मेंसे सूत्रदृष्टि अथवा बीज थे। वे वृक्ष के समान महान् अर्थको आगमके वर्णनको बीजरूपसे संक्षेप में सूचित करना अधिक पंसद करते थे। हमारी इस मान्यता की पुष्टि उनकी मीमांसासे हो सकती है जिसकी किं १२५ कारिकाओं में ३६३ य प्रायः सभी मूल अपसिद्धान्तोंका निराकरण किया गया है जैसा कि उसकी टीकाओं से स्पष्ट होसकता है। भगवान् समन्तभद्रकी सार्वभौम विद्वताको भगव जिनसेनाचार्यने यह मानते हुए भी कि— pattrai माना च बादिनां वाग्मिनामपि । यशः समन्तभद्रीय मूर्ध्नि चूडामणीयते ॥ दो भागों में विभव कीया है। यथा- 7 नमः समन्तभद्राय महने कविवेधसे । यद्वचोवपावेन, निर्भिन्नः " कुमादयः || सालुम होता है इस विभागीकरणमें विषयकी तरफ मुख्य हांट रखकर साहित्यिक रचनाकी तरफ प्रधानउद्या लक्ष्य रखा गया है। इससे ऐसा मालुम होना है कि भगवजिनसेनाचार्य उनकी कृतियों में दो महान गुण अथवा कलापूर्ण योग्यताओं को देखते हैं. महान कवित्व और कठोर अथवा असाधारण तर्कपूर्णता । यह कहनेको आवश्यकता नहीं है कि - - + अङ्गादंगात्प्रभवति, हृदयादपि जायते । आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम् ॥ 1 आशीर्वादात्मक आगमके इस वाक्य के अनुसार जिस प्रकार पिताके शारीरिक मुख आदिको आकृति और हार्दिक भावोंका अवतार पुत्रमें हुआ करता है उसी प्रकार कविकी कला एवं भावनाका प्रतिविम्ब उस की कृति हुआ करती है। भगवान समन्तभद्रके विषय में भी यही कहा जा पकता है । श्रावकाचार है। यह कोई बाध्य या प्रथमानुयोगका ऐसा कथाप्रन्थ नहीं है जिसमें कि साहित्यिक गुण दोष रीति रस अलंकारोंका प्रयोग किया जाय इसी प्रकार यह कोई दार्शनिक अथवा आयोगका भी ऐसा ग्रन्थ नहीं है जिसमें कि आक्षेत्रिणी अथवा विलेपणी कथाओंके अवसरपर बगायो प्रमाणन निक्षेपके आधार पर हेतुनाद एवं कर्कश तर्कगर्भित युक्तियों के सदर्भका निबन्ध आवश्यक हो । यह तो उपासकाध्ययन के एक अपूर्व आवश्यक भागका महत्वपूर्ण सार है। क्योंकि इस विषयका मूल उदगम स्थान सातवा अंग उपासकाध्ययन है। इसका अर्थ होता है“श्राहारादिदानैः पूजाविधानैश्च ये संघमुपासते ते उसका श्रावकाः अषीयन्ते बपर्यन्ते यस्मिन् वत् उपासकाध्ययनम्" । 1 2 अतः इसमें भावककी ग्यारह प्रतिमाओं के वर्णन के सिवाय उनके कर्तव्य दान पूजा आदि से सम्बन्धित याचरक क्रिया कापड तथा तद्विषयक मंत्रविधानादि का भी विस्तृत वर्णन किया गया है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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