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________________ यद्यपि हमारी इच्छा अभी प्रकाशित करनेकी नही थी परन्तु म० श्रीलालजी काव्यतीर्थंका कहना रहा कि जितना भी लिखा गया है उसे प्रकाशित कर दिया जाय। इसके सिवाय उक्त भाई सा० जब इन्दौर आये थे तब उन्होने मुझे लिखते हुए देखकर और कुछ पयोंका अर्थ सुनकर अत्यन्त हर्ष प्रकट किया और और देकर प्रेरणा की कि जैसा भी हो एकबार इसको प्रकाशित करादो। उनकी इच्छा थी और जैसा कि उन्होने कहा भी था कि are समय अधिक नहीं है और में इसके प्रकाशित अंशको देखना चाहता हूं। किंतु दुःख है कि इसके प्रकाशित होनेसे पूर्व ही उनका समय ( मनुष्य पर्याय ) समाप्त होगया | हमारी इसके छपते समय यह मी इच्छा थी कि कमसे कम एक बार हम इसका प्रूफ देख सकें किंतु वैसा नहीं etest | इसके संशोधन का कार्य श्री श्रीलालासा किया है। ए हम उनके अस्पन्त ने आभारी हैं। साथ ही उक संस्था - श्री शांतिसागर जैन सिद्धांतप्रकाशिनी संस्था श्री महाबीर के इम उसी प्रकार अत्यंत आभारी हैं जिसके कि द्वारा यह टीका प्रकाशित होरही है । हमारी यह कृति कहां तक उपयोगी है यह निर्णय तो पाठक महानुभाव एवं विद्वानों पर ही निर्भर है । विद्वानोंसे यह प्रार्थना अवश्य है कि यदि हमसे कहीं स्खलन होगया है तो केवल क्षमा प्रदान करने की अथवा पर उपेक्षा करने की अपेक्षा उसको सुधार लेने की कृपा करना अधिक श्रेस्कर होगा। अंत में मम्मी गुजनों का आशीर्वाद चाहते हैं कि इस ग्रंथ को यथाशक्य जल्दी पूरा करने में हमको निर्विके साथ ही सामर्थ्य भी प्राप्त हो । देवश्चंद्रप्रभः पुरुषात् मद्रत्नत्रय मन्द्रिकाम् । सन्मति: उम्मति दद्यात् पार्श्वो विप्रहरोऽस्तु नः ॥ खूबचन्द चैन परम पुज्य ऋषि रत्न, उपसर्ग विजेता धर्म केशरी आचार्य श्री 108 दर्शन सागर जी महाराज का शुभाशीम रत्नत्रय चन्द्रिका नामक are rवकों के शानोपार्जन के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा । इस अन्य में सभ्य दर्शन की विशद व्याख्या सार गर्मित है जो मिध्यात्व रूपी अन्धकार से सभ्यकत्व रूपी अन्धकार से सभ्यकत्य रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाली है । इस राज्य के प्रकाशन हेतु मेरी मंगल कामना है 1 बास ब्र- श्री 108 मुनि समता सागर जी शिवचन यह रत्नत्रय चन्द्रिका नामक ग्रन्थ जिनमें समुद्रभद्र आचार्य ने श्लोक लिखे है । 4। श्लोकों की हिन्दी टीका की है जिसमे सम्यक दर्शन का वर्णन है । पं. बचव शास्त्री ने व्याकरण के अनुसार हिन्दी का विस्तार किया है। जिससे पादक को स्पष्टीकरण होने से चि पढ़ने की बढ़ती है और पाठक को शंका का समाधान हो जाता है। टीकाकर ने विषय वस्तु को स्तष्ट करने के लिये अन्य ग्रन्थों का भी उदाहरण दिया है। पंडित जी का स्वर्गवास होने के कारण इस ग्रन्थ की सभी स्टांकी की पूर्ण टीका नहीं हो सको ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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