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________________ ' AAAAMKARANAM .......चन्द्रिका टीका छब्बीसवां श्लोक वैसा करता है तो अवश्य ही उसके श्रद्धा भक्तिके योग्य उचित व्यवहारकी यह कमी है जिससे कि सम्यग्दर्शनकी मलिनता एवं अतिक्रमणु व्यक्त होता है। कोई भी ऐसा व्यवहार जो उद्धतता या असभ्यताको प्रकट करता है, सर्व साधारण समाजमें भी जनुचित ही नहीं अपितु गहां भी माना जाना है | कमी २ तो इस तरहका व्यवहार जिस व्यक्ति के साथ किया गया हो उसकी पद--मर्यादा-योग्यताके अनुसार साधारण या असाधारण अपराध भी माना जाता है । तब निजीक पूज्य मुद्राके धारक वीतराग साधुक प्रति किया गपा प्रौद्भत्यपूर्ण व्यवहार अपराध क्यों नहीं माना जा सकता ? अवश्य माना जा सकता है । उसका दंड और कोई दे या न दे प्रकृति स्वयं देती है। कारागारके ऊपर रूपगर्षिता वेश्याने पानकी पीक डालदी इसका प्रकृतिने उसे क्या दंड दिया यह हमको नहीं मालुम परन्तु श्रेयोसके जीवने पूर्व भव में धनश्रीकी पर्यायमें श्रीसमाथि गुप्त मुनिक ऊपर मृत कुत्तेका कलेवर फेंककर अज्ञानपूर्वक अपमान किया था उसका उसको जो फल भोगना पडा वह परमागममें वर्णित है। इस परसे यह समझमें आसकता है कि सामान्यतया प्रौद्धत्यपूर्ण व्यवहार किसीको भी कमी भी किसी के भी साथ करना श्रेयस्कर और उचित नहीं है तब सम्पष्टि जीव मर्माओं के प्रति वैसा करता है तो स्वभावतः उसका सम्यग्दर्शन मलिन हुए विना नहीं रह सकता । धर्मास्मामों रखत्रयमूर्तियों के साथ वैसा करने पर बहुत बड़े पापका भी संग्रह होता है। किन्तु इससे भी अधिक सम्यग्दर्शनकी मलिनता और पाप कर्मका बंध उस समय हो सकता है जबकि उक्त पाठ विषयों के स्मपके कारण वैसा किया जाय । यदि उसका प्राशयही गर्षित होजाय अथवा वैसा ही हो तब तो कहना ही क्या ! कर्ता द्रव्य आत्मा सम्यग्दर्शनविरोधी असत् विभाव परिणामसे युक्त हो और अनात्मीय ऐहिक णिक पराधीन वस्तओंकी पचपातपूर्ण भावना, अवहेलना करने में कारख अंतरंग असाधारण कारणका काम कर रही हो तथा अपमानके लक्ष्य सर्वतंत्र स्वतंत्र, देशकालापन्छिन आत्मपरिणतिके धारक, परम प्रशांत, वीतराग, सर्वथा निर्विरोथ महान् तपस्वी हों, फिर उनका यदि अकारण अपमान-तिरस्कार आदि किया जाय तो उसका परिपाक कितना महान् महितकर हो सकता है, यह, ऐसे ही योगी के गले में मृत सर्पको डालकर अपमानित करने के फलस्वरूप सप्तम नरककी आयुका बन्ध करनेवाले श्रेखिकक दृष्टान्तसे सम मध्य मलेप्रकार समझ सकते हैं। यहां पर लोकोक्ति ही चरितार्थ होती है कि" ऐककमप्यनर्थाय किस पत्र चतुष्टयम् ।" ___ऊपर जैसा कि निरूपण कियागया है उस विषय में यह बात भी ध्यानमें लेना पावरपक है कि सम्पग्दर्शन के स्मय नामक दोषके लिये इस कारिकामें जिन चार बातोंका उबेख किया है उनमें से किसी भी एक अथवा अनेक यहा सबके रहते हुए भी कदाचित यह भी संभव है कि सम्पदर्शन स्मय नामक मल उपस्थित न भी हो क्योंकि फलका होना उस क्रिया करने १-फलिष्यति विपाके ते दुरन्तं कटुकं फलम् । दहत्यधिकमान्यस्मिन्माननीयविमानना ||भारि ६-१३८ । -सकी कथा श्रादिपुराप पर्व ६ में है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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