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________________ २६४ रत्नाकरवडश्रावकाचार - ~- - धर्ममें स्थित व्यक्ति का अपमान करता है वह उसको वस्तुतः कोई हानि न पहुंचाकर अपने धर्मकी हानि अवश्य कर लेता है । यह सब समझते हैं और जानते हैं कि हाथमें अंगार लेकर दूसरेको जलाने के लिये उसपर फेंकनेकी चेष्टा करनेवाला व्यक्ति सबसे पहले अपना हाथ अवश्य जलालेना है । दूसरेका जलना न जलना निश्चित नहीं। क्यों कि वह तो उसके भाग्यपर निर्भर है। इसी तरह अपमानकी भावना हृदयमें उत्पन होते ही अपना धर्म तो नष्ट हो ही जाता है। जब तक धर्मस्थ व्यक्तियों के प्रति थम के अनुकूल यथायोग्य सत्कार पुरस्कार विनय वात्सम्यादिरूप चेष्टा करनेका स्वभाव बना हुआ है तभीतक वह धर्मी है और उसमें वह धर्म भी बना दुभा है, ऐसा माना जा सकता है। स्मयका प्रकृतमें अभिप्राय क्या है यह ऊपरकी कारिकामें पता चुके हैं । इस कारिकाके द्वारा स्पावाद-न्याय-विद्यावाचस्पति भगवान् समन्तभद्र बतलाना चाहते हैं कि कब कहां किसतरहसे तो यह स्मयभार सम्यग्दर्शनका मलदोष माना जा सकता है और कब कहां किसतरहसे नहीं | यह बात उनके द्वारा प्रयुक्त कर्तृ पद कर्म पद करणपद और क्रियापदके द्वारा भले प्रकार जानी जासकती है। धर्म तथा धर्मस्थका अर्थ क्रमसे रत्नत्रय और उसके धारण करनेवाला है यह ऊपर बताया जाचुका है। यह बात भी कही जाचुकी है कि यहाँपर धर्मस्थ शब्दसे मुख्यतया प्रयोजन उन वरीमतोंसे है जो कि रसत्रयकी मूर्ति हैं और सम्यग्दर्शनके तीन विषयों में से अन्तिम श्रद्धाके असाधारख विषय हैं। प्राचार्यों या विद्वानों ने बताया है कि तपस्वियों या गुरुजनों के प्रति अपनी वाचिक कायिक बेष्टाए किसतरह विनयपूर्ण-अनुत्सेक या निरभिमानताको प्रकट करनेवाली ही नहीं अपितु उनके हृदयमें किसी भी तरहसे कष्मलता पैदा करनेवाली जो न हों एसी ही करनी चाहिये । फिर उनके हृदयमें कम्मलता उत्पन्न हो या न हो। अपना हित चाहनेवालेका कर्तव्य है कि वह उनके प्रति मर्यादाका उबंधन करनेवाली कोई भी चेष्टा; पैर फैलाना लेटना, अंगडाई लेना, लापरवाहीसे बैठना उठना, खडे होना, हंसी मजाक करना, तिरस्कारयुक्त वचन बोलना आदि नहीं करनी चाहिये । जिस तरह राजा महाराजाभोंके समक्ष स्वाभाविक विनयका भग नहीं किया जाता उसी तरह गुरुजनोंके प्रति भी अपनी प्राकृतिक विनयशीलताका अतिरेक नहीं करना चाहिये और नहीं होंने देना चाहिये । जो इस बातको न समझकर या जानकर भी ध्यान न देकर अथवा लापरवाहीसे १--उपास्या गुरको नित्यमप्रमः शिवार्षिभिः । तत्पङ्गतार्यपक्षान्तश्परा विभोरगोचराः ।। ४५ ॥ निमाजमा मनोवृत्या सानुकृत्या गुरोर्मनः । प्रविश्य राणघरछविनयेनानुरंजयेत् ।। ४६॥ पायें गुरूणां नपबलात्यभिषिका कियाः ।अनिष्टाश्च स्यजेत्सर्वाः मनो जातु न दूषयेत् ||४१ सा० भ००२ सहिप्पण्यांप-निष्ठीवनमवष्टम्भं जम्भणं गावभंजनम् । असत्यभाषणं नर्म हास्य पादप्रसारणम् ॥मन्याअपानं करस्फोट करेण करताडनम् । विकारमंगसंस्कार वर्जयेतिसन्निधौ ॥
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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