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________________ - - - ----- पन्द्रिका टीका छन्बोमा रलोक धर्मस्थ---धर्म-खत्रयात्मकं श्रात्मस्वभावे तिष्ठति इति धर्मस्थः । यह इसकी निरुक्ति है। यह अत्येति क्रियाका कर्मपद है । अत एव इसमें द्वितीयाके पहुवचनका प्रयोग कियागया है। गर्विताशयः–नार्वेण युक्तः गर्वितः भाशयः अभिप्रायो यस्य सः । जिसका अभिप्राय भईकारसे युक्त हो। यह क पद हैं। धर्म-इसकी निरुक्ति और अर्थ कारिका नं. २ में बताया जा चुका है। आत्मीय-आत्मनः अयम् आत्मीयः । आत्मन् शब्दसे छ-ईय प्रत्यय होकर यह शब्द इनता है । मतलब यह कि जो कोई भी वस्तु अपनी हो-शपनेसे सम्बन्ध रखनेवाली हो उसको कहते हैं आत्मीय । धार्मिक-धर्म शब्दो शील अर्थ में टाकत पत्गम हो कर गा बनता है। अर्थात-धर्म ही शील-स्वभाव है जिसका उसको कहते हैं पार्मिक । 'बिना' भव्ययपदका योग रहनेसे इसमें हतीया विभक्ति कीगई है। इस कारिकामें हेतु अथवा अनुमानर अलंकार है। कारिकाका पूर्वार्ध पक्ष, तीसरा परण साध्य और चौथा चरगा हेतु के अर्थको सूचित करता है। यद्यपि दोनों अलंकारोंके स्वरूप में परस्पर अन्तर है। किन्तु यहाँपर दोनों ही अलंकारोंका सांकर्य होगया है। हेतु अलकारमें किसी भी कार्यके करनेवालेकी योग्यता के कारण को व्यक्त किया जाता है । अनुमानमें अन्यथानुपपन्न साधनका उल्लेख किसी भी तरह करके साध्यविषयका बोध कराया जाता है । मर्यादाका अतिक्रमण करके साधर्माका अपमान करनेवाले मत्सरोकी योग्यता के कारणभूत झानादिक पाठ विषयों के स्मयको यहां प्रकाशित किया गया है इसलिये हेतु अलंकार है। और धर्म धर्मी को छोड़कर नहीं रहसकता इसलिये दोनोंमें पाई जानेवाली अन्यथानुपपनि अथवा अविनाभाषसम्बन्ध को दृष्टि में रखकर प्रयुक्त साधनवाश्यक द्वारा यहां पर साध्य धर्म के अभावका बोध कराया गया है इसलिये अनुसान अलंकार कहा जा सकता है। तात्पर्य इतना ही है कि धर्म जिसमें रहे उसको ही धर्मी कह सकते हैं। अमुक व्यक्ति धर्मा है या नहीं यह बात उस धर्म के अनुकूल व्यवहार अथवा प्रवृत्तियोंको देखकर ही जानी जा सकती है। धर्मके विरुद्ध प्रवृत्ति होने पर उसको देखकर मालुम होसकता है कि इसके अन्तरङ्गमें यह धर्म नहीं है; अत एच यह धर्मी भी नहीं है । फिर कदाचित् बास प्रवृत्ति न होने की अवस्थामें अथवा किसी की दृष्टि में यह न भी पाये तो भी अन्तरंगमें विरुद्ध भावके होनेपर धर्मरहमी किस तरह सकता है। निश्चित है कि धर्म की बाधक या विरोधी कायके उदय भाकर काम करने की अवस्थामें धर्म रह ही नहीं सकता । जो व्यक्ति ज्ञानादिलके अभिमान है १-पत्रोत्पादयतः किंचिदर्थ कर्तुः प्रकाश्यते । तद्योम्यतायुक्तिरसी हेतुलको दुधमा ।। १०५॥ गमा २-प्रत्यताजिंगलो मन्त्र कालनिसयवर्तिनः । किंगिनो भवति हानमनुमा खुच्यते ॥ १५ ॥ वागमका
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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