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________________ चन्द्रिका टोका भवतीसवां श्लोक राजा तो देव-धेत्य चैत्यालय आदि तथा देहधारी-समस्त प्राशियों की भी नियम से रक्षा किया करता है। परन्तु देव तो अपनी भी रखा नहीं कर सकते । भवएव राजा परदेववा' है। इस युक्तिके अनुसार जो न केवल राजा अथवा अधिराज ही है किन्तु सम्राट----समस्त पट् खण्ड भूमण्डलका रचक है, उसके परम साम्राज्यका कार्य क्या इन्द्र द्वारा शक्य है। नहीं। जिसके प्रतापसे प्रजामें सभी वर्ण सभा वर्ग सभी अर्थ और सभी आश्रम निर्विघ्नतया प्रवर्तमान रहा करते हैं उसका स्थान कितना उच्च है यह सहज ही लक्ष्य में भा सकता है। जिस प्रकार निःश्रेयस फलके प्रदाता प्राभ्युदयिक धर्मके उपज्ञ वक्ताका साथम स्थान है उसी प्रकार उनके उपदिष्ट धर्मका निरन्तराय और अपनी-अपनी योग्यताके अनुसार सभी पालन कर सकें और उसके इष्ट विशिष्ट फलको भी प्राप्त कर सकें इसके लिये यदि कोई जगत् में समर्थ है तो परम साम्राज्य ही है जिसके कि कारण निष्कारण या सकारण आक्रमण वर विरोध मात्मपन्याय एवं माधिदैविक आधिभौतिक आपत्तियों से प्रजाका हित सुरक्षित रह सकता है। यही कारण है कि ऐन्द्री जाति और सुरेन्द्रता नामक परम स्थानके अनन्तर तथा परमा जाति और भाईन्स्य परम स्थानके पूर्व अर्थात् दोनोंके मध्वमें विजया जाति एवं साम्राज्य नामक उस परमस्थानका आचार्य वर्णन करना उचित समझते हैं जिसका कि सट सम्यादानके फलस्वरूप काम हुमा करता है। शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ नवनिषि-सप्तद्वयरमाधीशा:-नव च ते निधयश्च = नवनिधयः । ससानां दुर्य । सप्तद्वयम् , सानि च तानि रत्नानि च सप्यास्नानि । अधिक ईश:-अधीशः नवनिषपश्च सप्तद्वयरत्नानि चमवनिथिसप्तद्वयरत्नानि, तेषामाशा: । अर्थात् नव निषि भौर दो तरहके सास-सात रत्न–चौदह रत्लोंके अधीश-मुख्य स्वामी हुमा करते है।। काल महाकाल नै:सर्प पाय डुक पा माण पिंगल शंख और सर्व रत्नाइस प्रकार मागममें नर निधियां बताई गई है। इनमस काल नामकी निषिसे लोकिक शब्द भयोत व्याकरण कोश बन्द अलंकार आदि सम्बन्धी तथा अन्य भी व्यावहारिक एवं गायन वादन आदि विषयक शब्द उरसम हुआ करते हैं । महाकालसे असि मांस मादि पदकमका साधनमत दृष्यसम्पत्ति उत्पन्न हुआ करती है। नापंसे शय्या मासन मकान आदि और पाण्डकसन १-रसस्पेषात्र राबाना देवान् देहभृतो पि ध । वेवास्तु नात्मनोऽप्येष राजा हि परदेवता || जन चू० ०१ २-मातुर्वण्य-बामण क्षत्रिय वैश्य शूद्र ॥ चतुर्वर्ग-धर्म अर्थ काम मोक्ष अर्थोऽभिधेयरवता प्रयोजननिवृत्तिषु ।। इत्यमरः ॥ आश्रम-ब्रह्मचारी गृहस्थ बानप्रस्थ संन्यास । ३-पूर्व द्वितयमुभयं, यमलं युगल युगम् । युग्मं द्वन्द्वं यमं व पादयोः पातु डनयोः ॥२॥ नाममाला। ४- प्रादि समास । ५-कालाख्यश्च महाकालो, नैरसर्पः पाण्डुकाहयः। पद्ममाणवपिंगावी रलपदाविका ॥३॥10. प. २॥
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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