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________________ লিঙ্কান্দা नियम है। यही कारण है कि भगवान महावीर स्वामीकी दिव्यध्वनिका होना ६६ दिन तक रुका रहा था। किन्तु यदि कदाचित् गणधरदेव न हों तो ? उस अवस्थामें इस नियमका अपवादरूप यदि कोई विकल्प है तो वह यही है कि चक्रवतीके उपस्थित होनेपर भी तीर्थप्रकृति -भगवानकी दिव्य ननिका प्रारम्भ हो सकता है। जैसा कि आदि तीर्थकर श्रीऋषभदेव भमवानी दिव्यध्वनिका प्रकाश प्रथम सम्राट श्रीभरतेश्वर के प्रश्नके कारण ही हुआ था । पीछे उनके छोटे भाई पुरिमतालके राजा धृपभसेनन दीक्षा धारण करके प्रथम गणधरका पद प्राप्त किया था। यो तो श्रीभगवज्जिनसेनाचार्यके एक वास्यस ऐसा भी मालुम होता है कि यदि कोई मणवरदेवकी उपस्थिति में भी उनसे प्रश्न न करके सीधा तीर्थकर भगवानसे ही प्रश्न करें तो यह भी कोई साधारण वातर नहीं है । फिर जिनके निमित्त तीर्थ की ही प्रवृत्तिका प्रारम्भ हो तो इस तरहका असाधारण दशादिशगमोहन्द्र जिसी सत्राचईओ कि गणधरकी समकक्षनाके पदपर प्रस्थापित कर देता है। इस तरहका महान श्राभ्युदयिक पद सम्यक्त्वक साहचर्यके मिना नहीं प्राप्त हो सकता। अतएव सम्यग्दर्शनके असाधारण ऐहिक महत्त्वपूर्ण फलोंको बताते हुए इस परम साम्राज्य पदका उल्लेख करना भी उचित ही नहीं, आवश्यक भी है । फिर सुरेन्द्रपदके बाद इसका वर्णन इसकी अधिक महत्ताको भी सूचित करता ही है। तीर्थकर भगवान जब दीक्षाके लिये घरसे निकलते हैं नब सबसे प्रथम उनकी पालकी को भूमिगोचरी४ राजा उनके बाद विद्याधर नरेश और उनके भी अनन्तर अन्त में देवगन वहन किया करते हैं। इससे क्षत्रिय राजाओंके नियोगकी प्रधानता उसी प्रकार व्यक्त होती है जिस प्रकार कि उनकी मन्दराभिषेक क्रियाके अवसर पर प्रथम कलशोद्धार करनेवाले सौधर्मेन्द्रके नियोगकी। जब साधारण राजाओं को इस तरहका नियोग प्राप्त है वष जो मुकुटबद्ध राजाभोंका भी शासक है, अरिहंत भगवानके सम्पूर्ण अधिकृत क्षेत्रमें एवं उनके उपदेशकी प्रषिके संबंध में जो निग्रह अनुग्रह करनेमें समर्थ है, जिसके कि अनुयायी होनेमात्रसे प्रायः अनुकरचप्रिय सम्पूर्ण भूमिपर वीतरागधर्मका सहज ही प्रचार हो सकता है, जो स्वयं न्यायथर्मक स्त्रकके रूपमें वीतराग धर्मका ही प्रतिबिम्ब है, उसके महत्त्वका उल्लेख कहांतक किया जा सकता है ? जिसकी किन्यायपूण बाझ प्रवृत्तियां ही उसके सम्यग्दर्शनको स्पष्ट करनके लिये पर्याप्त मानी जा सकती हैं। ५- देखो आदि पु० ५० २४ श्लोक ८, ७ ! २-देखो श्रादि पु०प०२४ श्लोक १७२। ३—ाणेशमधयोल्लंध्य त्या प्रष्टु के इवाइकम् ! भको न गणयामीदमतिकिच मध्यते ।। १६५॥ आदि पु० ५० ५। ४-पदानि सप्त तामूद्दुः शित्रिकां प्रथमं नृपाः। ततो विद्याधरा निन्युयोम्नि सा पदान्तरम् ।। ६८ स्कन्धाधिरोपितां कृत्वा ततोऽभूमविलम्बितम । सुरासुराः समुत्पेतुरारुवामयोदयाः ॥EE | भादि०५० {७।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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