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________________ कवकाचार -गयधर कमलों की शुर असुर और न पतियोंके द्वारा ही नहीं अपितु संयमी साधुओंके स्वामी --- देवोंक द्वारा भी स्तुति की जाती है । प्रयोजन सम्यग्दर्शनके निमिचने गप्त होनेवाले सभी तरह फलोंकी जब माचार्थ संचेपमें बता रहे हैं तत्र यहां पर परमस्थानों के लाभकं प्रकरणमें संसार में सर्वाधिक महान मानेगये म्युदयिक पदके लाभके विषयमें उल्लेख न करने पर प्रकृत वर्णन अवश्य ही अत्यधिक अन्यात दोपसे दूषित माना जा सकेगा । आए। यह अत्यन्त उचित और आवश्यक है कि सम्यक्त्वकं साहचर्य से मिलनेवाले उस आभ्युदरिक पदका निर्देश आवश्य ही किया जाय जो कि न केवल सम्यक्त्वका महान् पक्ष ही है प्रत्युत स्व-पर दोनों को ही परमनिर्वाण के लाभ में असाधारण कारणभूत सम्यग्दर्शन की प्रादुर्भूतिके लिये अथवा रत्नत्रयकी सिद्धिकं लिये बीज एवं जनक भी है। यह एक लोकोकि है कि ' अपुत्रः १ पितृणामृणभाजनम्" । इाका प्राय यह है कि यदि कोई मनुष्य पुत्रको उत्पन्न किये बिना ही अथवा कुटुम्ब व्यादिकी भविष्य के लिये समुचित व्यवस्था किये बिना ही दीक्षित अथवा लोकान्तरित हो जाता है तो वह अपने पूर्वजोंका ऋणी है। क्योंकि वह उनके द्वारा अन्वयदचिके? रूपमें प्राप्त अधिकार एवं कर्तव्यके प्रति दुर्लल्य करके उनके प्रति तथा धर्मपरम्परा के प्रति आवश्यक उत्तरदायित्वको नहीं निभाता । १- श्री सोमदेव सूरीकं नीति वाक्यामृतका यह ० ५ का १३ नंबरका (मुद्रित प्रति) सूत्र है। यह प्रम्ध सामान्यतया सभी सद्गृहस्थों के लिये व्यवहार योग्य नी तका मुग्न्यतया राजाओंके लिये राज्यसे सम्बन्धित राजनीतिका वर्णन करनेवाला है । लोकमें यह जो कहा जाता है कि "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गे नैव च नैव च" । सो यह तो एकान्तवादरूप अयुक्त अप्राय एवं अप्रमाण बद्धान्त है। परन्तु प्रकृत सूत्रका ऐसा आशय नहीं है । यह तो उचित और श्रावश्यक व्यवस्था की दृष्टिले कहा गया है । प्रथमानुयोगमें अनेक कम के द्वारा इसके आशय और दृष्टिकोणको समर्थन प्राम है। वजन चक्रवर्ती ने पुत्र पौत्रोंको राज्य भाग करनेके लिये कहा, परन्तु उन्होने नेता न करके सहदीक्षित ही होना चाहा; तथ एक स्तनन्धयपौत्र को राज्याधिकार देकर ही उन्होंने दोक्षा धारण की थी । 'आदि पु० १०८) तथैव मत्रियोंके समझाने पर उतराधिकारीको नियुक्त करके ही पूर्वकालीन राजाओं ने किस तरह राज्यका परित्याग किया इसके लिये दृष्टान्तरूप कथाओंसे देखो बुरन्दर - कीर्तिघर — सुकौशलकी कथाएं । प० पु० प० २९, २२ । इत्यादि । २ - आगम में बताई गई ४ प्रकारको दर्शियों में (सागा० १- १८ ) से यह एक है। इसके सार अपने सभी धर्म कर्म पालन पोषण विषयक अधिकार तथा कर्तव्य विधिपूर्वक पंचोंके समक्ष पोम्पुत्र या लक्ष्य व्यक्तिके ऊपर छोड़ दिये जाते हैं। तत्पश्चात उसका भी वही कर्तव्य होता है। यहाँ पर श्लोक भी स्मरणीय है कि - बिना सुपुत्र कुत्र एवं म्यस्य भारं निराकुलः । गृही सुशिष्य गणित प्रोत्सहेत परे पषे ॥३१ सागर० म०३ ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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