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________________ A-le - चौद्रका टीका नौवां झोक कारिकाके पूर्वागत अनुलंघ्य विशेषण से नि] जिनी, अदृष्टेष्ट विशेषण से संप्रेजिनी और उपसर्थगत तत्वोपदेचकर विशेषण से प्रक्षेपिणी और कापथघटनम् से विक्षेपिणी कथाका दोष होता है। आप्तोपज्ञ कहनेसे आगमकी स्वतःप्रमाणता व्यक्त होती है। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि जीव जिनोक्त विषयमें सर्वथा प्रामाण्यका श्रद्धान रखता है यदि उसके समझमें कोई आगम की बात नहीं पाती तो मी उसको वह प्रमाण ही मानता है। क्यों कि वह समझता है कि विषय सूक्ष्म हैं । मेरी बुद्धि पाल्य है जिनेन्द्र मागवान सर्वल और निर्दोष वीतराग हैं, वे अन्यथा प्रतिपादन कर नहीं सकते । अतएव आगमोक्त विषय सर्वथा सत्य और प्रमाणभूत ही है। इसके सिवाय यहां जितने विशेषण दिये उनमें पूरब के हेतु और उत्तरोत्तरको हेतुमानर मान कर अर्थकी यथावद पटना कर लेना चाहिये । यथा-क्यों कि जैन शासन आप्तोपज्ञ है अतएव अनुवंध्य है। उसको सर्वथा प्रमाण न माननेसे अथवा उसके विरुद्ध चलने से दर्शनमोहनीय कर्म का बन्ध होता है और चतुर्गतियों में पंच परिवर्तन की परम्परा चालू रहने के कारण अनेक बाप और परिताप भोगने पड़ते हैं। अतएव इसका उल्लघन करना भयकर मिथ्यात्व है। इसी सरह अनुष्य होनेके कारण ही वह अदृष्टेष्टविरोधक भी है । क्यों कि इसका उल्लंघन करने वाला ही जीच दृष्टेष्ट विषयों से वंचित हुआ करता अथवा रक्षा करता हैं। इन उपर्युक्त कारणों सेही वह तत्वों का वास्तविक निहाण करनेवाला है। और इसीलिए प्राणीमात्र को वह हितमें लगाता और कापथ से उन्हें बचाता है। यदया इस कारिका के प्रारम्भमें कहे गये चार विशेषणों से क्रमसे चार अनुयोगों३ का भी सम्बन्ध पटित कर लेना चाहिये । मालुम होता है कि भगवान जिनसेन स्वामीने भी इसके महत्व को दृष्टिमें लेकर ही जैन शासनको नमस्कार करते हुए४ इस कारिका में दिये गये विशेषणों से मिलते जुलते ही विशेषणों का प्रयोग कर उसकी महिमा बताई है । यथा-आसोपझं = जैन, अनुलंध्यं और अदृष्टेष्टविरोधक अजय्यमाहात्म्यं, तच्चोपदेशक - मुक्तिलक्ष्म्ये कशासनम् । सार्वम् - उभासि, कापथमनम -विशासितकशासनम् । इसीतरह अन्य प्राचार्योंने भी जैनागमकी इन्ही गुणों के कारण स्थान २ परं महिमा गाई है। जोकि सर्वथा युक्त ही है । क्यों कि जैनागम ही संसार में एक ऐसा आगम है जो कि मिभ्या रसूक्ष्मम् जिनोदितं तस्वं हेतुमिव हन्यते । आशासिद्ध तु तद्नाम नान्यथा वाखिनो जनाः ॥ पुरु २-प्रभारन्द्र भाचार्य की संस्कृत टीकामे पूर्व २ को तुमान और उत्तरातर को हेतु बताया है। वर्धा बार भनोपज्ञ इसलिये है कि वह मनुष्य है । और क्यों कि वह अरष्टष्ट विरोधक हैं अव्यय अनुलंय ki इत्यादि। इस तरहसे भी हेतु हेतुमदुमाव पटिन होला है । ३-प्रथमानुशग, करणानुयोग, परणा योग ओर च्यानुयोग । ४-जयत्यजय्य मावास्यं विशासितकुशासनम् । शासन नमुभासि मुक्ति लपम्यकशासनम् ॥ आदि ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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