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चंद्रिका टीका उन्नीसवां धीमा श्लोक पर घोर उपसर्ग करनेके अभिप्रायसे बनुन र यच समाविर" । और लाहें अनेक तरह कष्ट देने लगा। किंतु मुनिजन उपसर्ग निवृत्त होने तक के लिये ध्यानसमाधिमें स्थित हो गये।।
उधर मिथिलामें जिष्णु सूरीके शिष्य प्राजिष्णुने रात्रिके समय प्राकाराकी तरफ देखा कि श्रवण नक्षत्र कंप रहा है । इसपरसे एकाएक उनके एहसे निकला कि "हा, कहीं मुनिसंघपर महान् आपत्ति आ रही हैं" । संवपतिने यह सुनकर अवधिज्ञानस हस्तिनापुरमें होरहे उपसर्गको जानकर आकाशमार्गसे जाने में समर्थ पुष्पकदेव झुलाकको पुलस्कर कहा कि अभी विष्णुकुमारमुनि के पास जाकर कहो कि वे इस उपसर्गका निवारण करें। उनको विक्रिया ऋद्धि सिद्ध होगई है। उसके द्वारा वे विधाका यथेष्ट शीघ्र निवारण कर सकते हैं । आज्ञानुसार कुलकने उसी समय विष्णुकुमारसे जाकर पव प्रतान्त कहा । महामुनि विष्णुकुमारने पहले अपनी विक्रिया शुद्धिकी परीक्षा की। फिर हस्तिनापुर पहुँचकर राजा पयसे इस उपसर्ग निवारणकलिम कहा । किंतु उसकी असमर्थना और यह जानकर कि इस समय बलि ही राजा है वामनरूप धारण कर मधुर स्वरमें वेदका उच्चारण करते हुए बलिके यज्ञस्थानपर पहुँचे ।
बलिने वेदध्वनि आदिसे प्रसन्न होकर यथेच्छ वर मांगनेकलिये कहा। उन्होंने तीन पैर जमीन मांगी। लिने शुक्रके द्वारा मनाई करनेपर भी तीन पैंड जमीनका संकल्प कर दिया । विष्णु कुमारने शरीर बहाकर ऐक पैर समुद्रकी वेदिकापर और दूसरा पैर चक्रचाल पर्वतपर रक्खा। तीसरेमें बलिको बांध लिया । अन्तमें पुनियोंका उपसर्ग दूर कर विष्णुकुमार पुनः अपने संयमाचारमें पूर्ववत् प्रवृत्त होगये । अतएव कहाजाता है किमहापमसुनो विष्णु नीनां हस्तिने पुरे । बलि द्विजकृतं विद्म शमयामास बत्सलः॥
बजकुमार। पांचालदेशमें अहिच्छत्र नामक नगरका राजा द्विषनप जिसकी रानीका नाम चन्द्रानना था। इस राजाका सोमदत्त नामका पुरोहित था और उसकी स्वीका नाम यबदत्ता था। यबदचाको एक समय दोहला हुआ जिसके कि कारण वह चिन्तित म्लानमुख एवं कृश रहने लगी। पतिके आग्रहपूर्वक पूछनपर उसने कहा कि मेरी इच्छा आम खानेकी है। सोमदत्तने सोचा कि यह आम की ऋतु नही है। फिर इसका मनोरथ किसप्रकार सफल किया जाय ? जंगल में जाकर देखना चाहिये, संभव है कहीं मिल जाय । ऐसा विचार करके एक विद्यार्थीको साथ लेकर वह प्राम हुनेको निकला । भाग्यकी बात है कि पासमें ही जलवाहिनी नदी किनारं कालिदास नामक बनमें भामके वृक्षक नीचे सुमित्र नामक एक महामुनिराज आकर विराजमान थे जिनके कि अतिशयके कारण वह आमका वृक्ष असमय में ही फलोंसे शोभायमान होरहा था। पुरोहितने उसपर से फल तोडकर विद्यार्थीके हाथ अपनी स्त्री के पास भेज दिये और स्वयं मुनिराजसे धर्मोपदेश सुनने लगा। और उसने मवान्सरका वर्णन आदि सुनकर संसारसे विरक्त हो उसी समय दंगम्बरी दीचा पारण करती । सिद्धान्तशालके रहस्वसे प्रभुद्ध हुए वे सोमदत्त महानि मगथदेशमें नामगिस्पर