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रहाकारखावकाचार
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समचुकी घटिका रहना या रखना अत्यावश्यक है। इस पृथक्करसकी सिद्धि ही निर्जरातस्त्र है। संवरक मुख्य साधन जिस तरह गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीपहजय और चारित्र है, उसी प्रकार निर्जराका मुख्य साधन तप है। सम्याखक होने पर दर्शनमोह और अनन्तानुबन्धी कपाय का उदय न रहनसे तदनुकूल प्रतियोंका भी प्रभाव हो जाने के कारण जो त्रियोगमें परिवर्तन होता है उससे उक्त संघरके कारणोंकी यथायोग्य सिद्धि भी स्वभावतः हो जाया करती है। मिथ्यात्वके अनुकूल मन बचन कायकी प्रवृधियोंका समीचीन निग्रह, मोक्षमार्गमें जिमसे पाया नयावे इस नरहसे उसके त्रिशेगकी प्रकुचि, अनन्तानुबन्धी कपायका उदय न रहनेसे तयोम्य उत्तम मना मार्दव अर्जिवादि धर्मों की सिद्धि, मोक्षमार्गके विरुद्ध और संसरणके अनुकूल पर्यय बुद्धिमें नथा संसार शरीर भोगामें हेयताका चिन्तन और इसके विरुद्ध संसरणके प्रतिकूल एवं श्रेयोमार्गके अनुकूल अपने एकत्व-ध्र वत्व प्रादिकी उपादेयताके विषयका अनुप्रंक्षण होने लगता है। वह अपने लक्ष्यके विरुद्ध कदाचित उपस्थित होनेवाली भापत्तियों को भी सहन करनेका उनपर विजय प्राप्त करनेका यथाशक्ति प्रयत्न करता मोर स्वरूपाचरणसे भी युक्त रहा करता है।
ऐसा होनेपर भी उसके अभीतक ४१ उक्त कर्म प्रकृतियोंका ही संवर हो सकता है अधिकका नहीं । हो, उसके मन और इन्द्रियों तथा शारीरिक पहलेकी प्रवृत्तियोंके निरोषलक्षण तपका भी अंश पाया जाता है। और इसीलिये यह निर्जराके स्थानों से सातिशय मिश्यादृष्टिकी अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जराके प्रथम स्थानका भी भोक्ता हुआ करता है। फिरभी यह विशिष्ट संपर और असाधारण निर्जराका स्वामी तबतक नहीं बन पाता जबतक कि उसके योग्य अन्तरंग बहिरंग अवस्थाको आत्मसात् नहीं कर लेता। यह यही अवस्था है जो कि तपोभृतका लक्षण या स्वरूप कथन करते हुए स्वर्ग ग्रन्थकारने कारिका नं० १० में बताई है। किन्तु उस अवस्थाकी प्राप्तिमें जो तीन योग्यताएं अपेक्षित है उन्हींका इस कारिकामे निर्देश किया गया है। क्योंकि मुख्यतया निर्जरा और गौणतया संपरके कारमाभूत उस तपको संभावना जिनलिंगको धारण किए बिना नहीं हो सकती । और उस तरहकी तपस्वि अवस्थाके लिये इन तीनों योग्यताओंकी आवश्यकता है जो कि इस कारिकामें परिगणित हैं और जिनका किऊपर कन्चय क्रियाभोंके भेदोंकी आदिमें सज्जातिस सद्गृहिस और पारिवाज्य नामसे उल्लेख किया जा चुका है।
मानव पर्यायके सामान्यतया दो मेद है। एक आर्य इसरा म्लेच्छ । प्रावि पांच भेद है । क्षेमार्ग, जात्यार्य कार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य । इनमें पूर्व-पूर्व महाविषय-व्यापक ५-गुणैः (सम्यग्दर्शनादिभिः) गुणवद्भिया मर्यन्त प्रत्यायोः । स सि. -मुशकुल नायगे बागणेचनिये विशि। निष्कस थमे स्थाप्या जिनमुदार्षिता सताम् ।।८।
०५०म.
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