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चन्द्रिका टीका हत्तीमा श्लोक पला पाता है उनमें उत्पन्न होनेवाले जीवके संस्कारोंसे सम्बन्धित तथा इसके लिये उचित और प्रावश्यक क्रियाओंको गर्भान्चय क्रिया कहते हैं। और जिनमें जैनधर्म नहीं पाया जाता ऐसे कुलमें उत्पन्न दुधा व्यक्ति जब जैन धर्ममें दीक्षित होना चाहता है तो उससे सम्बन्धित एवं उसके लिये उचित और आवश्यकरूपसे की जानेवाली क्रियाओंको दीक्षान्वय क्रिश करते हैं। और जो सन्मार्गका माराधन करनेवालोंको पुण्य कर्मके फलस्वरूप प्राप्त हुया करती हैं हसको न्निय क्रिया कहते हैं । गर्भान्वय क्रियाओंके ५३, दीक्षान्वय क्रियाओंके ४८ भौर इन कन्वय क्रियाभोंके सात भेद हैं,-सज्जाति, सद्गृहित्व, पारिवाज्य, सुरेन्द्रता, परमसाम्राज्य, परमाईन्त्य भौर परमनिर्याय । इन कर्मन्यय क्रियाओं को ही परमस्थान भी कहते । क्योंकि ये परम-उत्कृष्ट-पुण्यविशेषके द्वारा प्राप्त होनेवाले स्थान है । तथा परमस्थान-मोक्षक कारण हैं इसलिए भी इनको परमस्थान कहा गया है।
___ सात परम स्थानों में आदिके तीन स्थान सामान्य हैं । साधारणतया सम्यग्दृष्टि और मियादृष्टि दोनों को ही प्राप्त हुभा करते हैं। किन्तु इन्हीं तीन विषयों में यदि वे सम्यग्दृष्टिको प्राप्त हुए है या होते हैं तो उनमें मिथ्याष्टिको प्राप्त होनेवाले इन्हीं विषयों की अपेक्षा उस्कृष्टता महत्ता असाधारणता पाई जाती हैं या रहा करती है। इस तरहसे सामान्य विषयों में भी सम्पदर्शनके फलकी महिमाका स्पष्टीकरण हो जाता है एवं च पुण्यकर्म उसके उदयसै मिथ्याइष्टि तथा सम्पष्टिको प्राप्त होनेवाले भाभ्युदयिक फलकी विशेषता—उनमें पाये जानेवाले अन्तरको दिखाना मी इस कारिकाका प्रयोजन है । और यह उचित तथा आवश्यक भी है। क्योंकि ऐसा करनेसे निध्यात्वकी अपेक्षा सम्यक्त्व सहचारी भावोंके द्वारा संचित पुण्यकर्मक वैशिष्ठयक विषयमें वस्त्रवान हो जाता है। तथा मोक्षमार्गमें भागे पढनके लिये प्रमादका परिवार और उत्साहकी पदि होती है। जिसके फलस्वरूप ज्यों ज्यों भागे आगे बढ़ता जाता है त्यों त्यों उदितोदित पुण्यका संचय विशेष भी होता जाता और उसके मोक्षके साधनोंमें प्रकर्ष भी पडता जाता है।
सम्यग्दर्शनकी विद्युद्धिके फलस्वरूप विवक्षित फाँके बन्धका निषेध बताकर ऊपरकी कारिकाके द्वारा संबर सलकी सिद्धि बताई गई है। किन्तु इस कारिकामें निर्जरा वसकी सिविल समान सपके साथनोंकी तरफ इष्टि रक्खी गई है। नवीन कर्मोका मानेसे रुकना संघर और पर्क बद कोका पारमाके साथ जो सम्बन है उसका विच्छेद हो जाना अथवा उनमें से कर्मस्वका निकल जाना ही निर्जरातच है। मात्मामें सम्यक्त्यके प्रकाशित होते ही मिथ्यात्व अवस्थामें होनेवाली प्रचिोंका परिवर्तन हो जानेसे जिन-जिन कर्मोका नवीन प्रागमन रूकता उसने अंक्षमें उसके संबर हुमा करता है। किन्तु उन्हीं पूर्वबद्ध काँका जपसक वय नहीं होता सबसक जो उनका सस्व बना हुआ है तथा शेष कर्म भी जो समामें हैं उनके पृथक्करणकी तरफ भी
-प्राषिराम ३८, ६३