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________________ Ty ३३४ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ही सर्वमाधारक तत्वका पर्याप्त परिज्ञान नहीं हो सकता जबतक कि विधिमुखेन प्राप्य अवस्थाओं का भी वर्णन करके वर्णनीय विषयके दूसरे मामका भी स्पष्टीकरण न कर दिया जाय । ऊपरी कारिकामें दो गतियोंका निषेध करके और पारिशेष्यात् प्राप्य दो गतियोंमें भी कुछ निम्न अवस्थाओं की अप्राप्यता दिखाकर यह सूचित कर दिया गया है कि इनके सिवाय सभी विशिष्ट अवस्थाओंको सम्यग्दृष्टि जीव प्राप्त किया करता है। किन्तु फिर भी यह पर जो एक शंका खड़ी रहती है वह यह कि क्या वे सभी शेष भवस्थाएं सम्यग्दष्टी जीवको ही प्राप्त हुआ करती हैं ? मिध्यादृष्टि जीवको प्राप्त नहीं हुआ करतीं १ यदि दोनोंको भी प्राप्त होती है तो फिर उनमें सम्यग्दर्शनके प्रभावका क्या विशेष फल पाया जाता है ? अथवा दोनों को प्राप्त होनेवाली उन अवस्थाओं में कोई विशेषता न रहकर समानता ही रहा करती है ? या कोई नियम ही नहीं हैं ! इन उठनेवाली शंकाओंका आचार्य महाराज इस कारिकाके द्वारा समाधान करना चाहते हैं। यह भी इस कारिकाका प्रयोजन है सम्ग्रष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों को लक्ष्यमें रखकर उक्त निषिद्ध दशाओंसे भिन्न कोदो नागरिक किया जा सकता है। एक सामान्य दूसरी विशेष । सामान्यसे प्रयोजन उन अवस्थाओंका है जो कि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों को ही प्राप्त हुआ करती है । और विशेष से अभिप्राय उन अवस्थाओंका है जो कि सम्यग्दृष्टिको ही प्राप्त हो सकती हैं। इनमेंसे इस कारिकामें जिन प्राप्त होनेवाली अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है वे सामान्य हैं। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनोंको ही प्राप्त हो सकती हैं। प्रश्न ---- यदि यही बात है तो सम्यग्दर्शन के महत और उसीके असाधारण फलको ही जब बताया जा रहा है तब यहां ऐसी दशाओंका उल्लेख करना जो कि सम्यग्दर्शके बिना मी पाई जाती है, पर्थ हैं I उत्तर—यह ठीक है कि इस कारिका में जिन अवस्थाओं को बताया गया है वे साधारणतथा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनोंको ही प्राप्य हैं परन्तु आचार्य यहां इनका उल्लेख करके बताना चाहते हैं कि ऐसा होनेपर भी ये ही अवस्थाएं यदि सम्यग्दृष्टिको प्राप्त होती हैं सो जनमें कुछ विशेषता रहा करती है । और यह विशेषता किस तरहसे तथा किन किन विषयोंमें हुआ करती है इसके लिये दृष्टान्तरूप कुछ विषयोंका उन्लेख करते हैं। फलतः इस कथनी प्रकृत बनके साथ संगति स्पष्ट हो जाती है । आगममें प्राप्य अवस्थाओंके वर्शन करनेवाले प्रकरणमें तीन तरहकी क्रियाओंका इम्लेख पाया जाता है, गर्भान्वयः दीक्षान्त्रय, और कर्षन्यथ । जैनधर्मका पत्चन जिन लो १- मादिपुराण पर्व ३८,३६,४०
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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