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________________ ६६ रत्नकरभावकाचार श्राशाया ये दासाः ते दासाः सन्ति सर्वलोकस्य । याशा येषां दासी तेषां दासोऽखिलो लोक १ ॥ जो भव्य भवभ्रमणसे भयभीत होकर उससे सर्वथा मुक्त होना चाहते हैं उनको सबसे प्रथम इन विषयों की अधीनतासे मुक्त होना चाहिये । इसी बातकी स्पष्ट करनेके लिये मोक्षमार्गका रजत्रयस्प धर्मका सर्वथा साधन करनेवाले तपस्वियोंको सबसे प्रथम विपयाशावशातीत होना चाहिये यह कहागया है। ... पांचों ही इन्द्रियोंके अवलम्बनसे अपने नियत विषयका क्रमसे अहम होता है। अतएच अवलम्बन और उनके नियत विषयके भेदकी अपेक्षा विषयके मूल में पांच भेद होते है जिनके उपर भेद सचाईस, और मनके विषयको भी सामिल करनेपर २८ भेद बताये गये हैं इनकी, रागवे वश होकर आशा करना-अप्राप्तमें प्राप्तिकी, और प्राप्तमें वियोग न होनेकी जो श्राकांक्षा लगी रहती है. उससे यह जीच न करने योग्य कर्मोको करने लिये भी विवश बना रहता है अतएव इस विमशताफा छूट जाना मोबमागमें चलनेकेलिये पहला माधन है । ज्ञानकी अपेक्षाको सारण करके उन चिपयोंके सेवनकी दृष्टि से इन्हीं विषयोंको दो भागोंमें विभक्त कियागया है।---भोग और उपभोग । जो एक ही बार भोगने प्रावें उन्हें भोग और जो वारवार भोगनेमें आवें उन्हें उपभोग कहते हैं । ऐसा स्वयं ग्रन्थकार आगे चलकर बताने वाले हैं। इन इन्द्रिय विषयोंको भोगोपभोग संज्ञा इसलिये दी गई है कि इनके अहपके साथ२ रागपूर्वक इनके सेवन करनेकी आशाका भाव पाया जाता है जो कि कर्म बन्ध और संसारका कारण है । जो इसपे रहित है -कदाचित निम्न दशामें उस कषायसे युक्त होते हुए भी उसको हेय समझ उसका निग्रह करनेमें प्रवृत्त है, प्रतएव जो उसके आधीन नहीं, अपितु उस कपायको ही जिन्होंने अपने अधीन करलिया है, उस कषायको निर्मूल करनेकेलिये संकल्प होकर साफनामें प्रवृत्त है वे ही साधु परमेष्ट्री वास्तवमें गुरु हैं-मृतिमान रलत्रय धर्म है-अन्य मुमुक्षुओंके लिये मोक्षमार्गके श्राराधनमें आदर्श हैं। निरारम्भः----विषयों की आशाक वशीभूत प्राणी उन्द विषयोंका संग्रह करने के लिये अनेक तरहके आरम्भ में प्रवृत्त होता है । असि मषि कृषि आदि जी भी इसके लिये व्यापार करता है उसमें सावधताका सम्बन्धमी अवश्य रहा करता है । द्रव्य हिंसा या भावहिंसा अथवा दोनोंका या भूठ नोरी आदिका किसी न विसी प्रमाण में सम्बन्ध आये विना नहीं रहता। अतएक जो विषयोंकी आशा ही छोड चुका है वह इन सावध कर्मोमें प्रवृत्ति करना भी क्यों पसन्द३ करेंगा। अताएब जी विषयों को प्राशाको छोडकर उनका संचय भी नहीं करता, संग्रह करने के -गही बात गुणभद्राचार्यने आत्मानुशासनमें भी अनेक तरहसे स्पष्ट की है। --"क्दसमिदिकपायाणं देवाण तहिदिवाण पंचगणं धारणपालणगिग्गाहवागजओ संजमो भपिदे गो० जी० नाति र शाखा ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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