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द्रिका टीका दसवां श्लोक लिये किसी भी तरहका व्यापार उद्योग थन्या मादि बिलकुल नहीं करता उसकी बहते हैं निराग्भः :
अपरिग्रहः--श्रारम्भ-उद्योग धन्या आदि न करके भी जो अपने पास उन विषयों और उनके साधनोंको-- वस्त्र, भूपण, रुपया, मकान, जमीन, वाहन, सोना, चांदी भादि को रखता है उसको कहते हैं परिग्रहीं । इस करहके समस्त परिपइसे जो रहित है उसका करतं हैं अपरिग्रह । ___ ज्ञानध्यानतपोरक्तः–यों तो ज्ञानका अर्थ जानना मात्र है। और रागह पसे रहित होकर यदि किसी भी विषयको जाना जाय तो सत्यत: उससे किसी तरहका पाप अथवा कर्मबन्य होता भी नहीं है। अन्यथा केवली भी उससे मुल न हो सकेंगे। फिर भी यहां ज्ञानसे मतलव निरन्तर श्रुतका अभ्यास करते रहनसे है । क्योंकि मोदमार्गीको उसीसे मावश्यक एवं उप-- योगी तन्त्र प्राप्त हो सकते है जैसा कि कहा भी है कि
सदर्शनवासमुहहप्यन्मनःप्रसादास्तममा लवित्री भवन परं ब्रा भजन्तु शन्दननाजमं निस्पं मथात्मनीनाः ॥३--१अन । तथा चामुर्भट्टाकलंकदेवाः ।
धुनादर्थभनेकान्तमविगम्यामिसन्धिभिः। परीक्ष्य तारतांस्तद्धमाननकान व्यावहारिकान ।। नयानुगत निक्षेपेरुपायझेदवेदने । विरचय्यार्थबाक प्रत्ययात्मभेदान् श्रुताप्तिान ॥ अनुयुज्यानुयोगश्च निदशादिभिदांगतः। द्रव्याणि जीवादीन्यात्माविशताभिनिवेशतः ॥ जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतश्ववित् । तपोनिजी विमायं विमुक्तः मुखमृच्छति ॥
अन०प० पृ०१६॥ ज्ञानकी स्थिर अवस्थाका नाम ध्यान है। कोई भी ज्ञान यदि अन्त में हरी तक अपने विषयपर स्थिर रहना है तो उसको कहते हैं ध्यान । भागममें ध्यानके चार भेद पसाय है-भात, रौद्र, धर्म
और शुक्ल। इनमें मम लिये अन्तिम दो ध्यान ही उपादेय हैं। ध्यानका तत्र विशेषरूप से जाननेकी इच्छा रखनेवालाको ज्ञानाच, यशस्विनका मादिपुराण, भावसंग्रह आदि अन्य देखने चाहिये। ___तप-कोकी कलिय मन इन्द्रिय और शरीरक मलेप्रकार निरोधको कहते है पर जिस नरह किट कालिमाले युक्त सुवर्श पाषाणको शोधनविधिके अनुसार अग्निमें ससने प्रादि प्रयोग करनेपर सम्पूर्ण दीप निकलकर सुवर्ण शुद्ध होजाता है । उसी तरह जिस प्रयोग के द्वारा कर्मकलंक दूर होकर झलकर आत्मा निर्दोष शुद्ध बन जाता है उसीको कहते हैं
प । इसमें मन इन्द्रियों और शरीरका समीचीनतया-विधिपूर्वक निरोध करना आवश्यक है। १--येनौशेन 'तु शान सेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तनशिलास्य बंधनं भवति । पुरा *--मनिरहितवीर्यस्य कायक्लेशस्तपः स्मृतं । नराधमार्गाविरोधेन गुणाय गदितं जिनैः । अथवा अन्तहिर्मलाखोपादात्मनः शतिकार । शरी मान कर्म तपः प्राहस्तपोधनाः ॥ यशस्ति तथा देखो भनगारपर्मा