SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८९ रत्नकरण्ड श्रावकाचार करण, प्रातिहार्य, मंगलद्रव्य, गायन वादन नर्तन करनेवाले ध्वजा पताका मानस्तम्भ स्तूप तीर चंदोबा अनेक तरहके हाथी घोडे आदिसे चलनेवाले रथ, जयवाद करनेवाले घंटा भेदी भंभापटह मृदंग काहला तुर्रा शंख त्रिवली आदि बाजे इत्यादि सभी साधनों के साथ, जबकि अनेकों सुन्दरियां नृत्य कर रही हैं वन्दिजन गान कर रहे हैं, दूसरे नियोगी जन भी अपने २ कार्य में उत्साह से संलग्न हैं कोई गारहा है, कोई विनोद कर रहा है कोई नाना रूप धारण कर कौतुक पैदा कर रहा है, इसतरह परन उत्साह के साथ आकाश मार्ग से चले और मथुरा आये । 1 ऊपर माकाशसे आते हुए इस दृश्यको देखकर मथुरा के लोगोने समझा कि मुद्दासीके द्वारा होनेवाले बुद्ध रथविहारका यह प्रभाव है कि उसको देखने और उसमें सम्मिलित होन केलिये स्वर्ग देवगण आरहे हैं । किंतु जब सभी विद्याधरोंका समूह उचिला रथमें सम्मिलित हुआ और उसका रथ सबसे प्रथम महान् विभूतिके साथ निकला तो लोग आश्यक होगये और वृद्धदासी पर भी दासीसरीखी उदासी गई तथा वह भग्नमनोरथ होगई । रथयात्रा के अन्त में अस्प्रतिविम्याङ्कित एक महान स्तूप स्थापित किया गया जिसके कि कारण अभी भी मधुराकी देवनगरी कहा जाता है । इस तरह विलाया महादेव्याः पूर्तिकस्य महाभुजः । स्यन्दनं भ्रामयामास मुनिर्वज्रकुमारकः ॥ तात्पर्य - यह कि इन दो कारिकाओं में सम्यग्दर्शनके आठ अंग प्रत्येक अंग प्रसिद्ध हुए एक २ व्यक्तिका उदाहरण देकर श्राचार्यने तचत् अंगका रूप और प्रयोजन स्पष्ट कर दिया है । यद्यपि प्रत्येक अंगका स्वरूप या लक्षण भिन्न २ कारिका के द्वारा बताया जा चुका है फिर भी उसका पालन किस तरह किया जाता है और उस तरह पालन करनेका फल किस तरहका प्राप्त हुआ करता है यह बात उदाहरणीय व्यक्तियोंकी कथाओं के पढनेसे स्पष्ट होजाता है । 1 प्रत्येक अंग विषय दोनों ही विषयोंको स्पष्ट करनेलिये आचार्यने उदाहरणरूप में जिन पात्रोंका चुना है उनकी विशेषता ध्यान देने योग्य है। प्राठ उदाहरणोंमें दो स्त्री पात्र हैं और शेष छः पुरुष हैं। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियोंमें कांचा और मूढताका भाव अधिक प्रमाणमें पाया जाता है। किंतु आचार्यने निःकांक्षित अंगमें अनन्तमति को चुना है । अनन्तमतिकी विशेषता उसकी कथासे स्पष्ट हैं । क्रीडाप्रियजीवनके होते हुए उपहासमात्रमें गुरुसा दीसे एकवार लिये हुए ब्रह्मव्रतका यौवन और धनसम्पति आदिके यथेष्ट रहने पर भी विवाहको अस्वीकार कर भोगोंके प्रति निःकक्षिता प्रकट करके पालन करती हैं, और अपने उस दृढव्रतमें एकान्त स्थल तथा सब तरहके प्रार्थयिताओंके मिलनेपर १ मी अतिचार लगाने की तो बात ही क्या अतिक्रमय भी नहीं होने दिया अन्तमें भी पिताद्वारा दिवाहकी कीगई १- रहो नास्ति क्षणं नास्ति नास्ति प्रार्थयिता नरः तेन नारद! नारीणां सतीत्वमुपजायतं ॥ इतिलोकोक्ति । २- अत्तिको मानसशुद्धिहानितिक्रमो यो विषयाभिलाषः । तचाभिचारः करमालसत्यम्, भंगोशनाचार विभवानाम् ।। 1
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy