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________________ चंद्रिका टीका उन्नीस बीसवां क १५३ तयारीको विनयके साथ ठुकराकर श्रर्थिका होकर सहस्रारस्वर्ग में देव होती है। उसके देव होने से मालुम होता है कि उसने स्त्रीलिंगका उच्छेद किया है और कुछ ही में उसकी भवसंतति का भी उच्छेद होजायगा । इसीतरह रेवती रानीके विषय में भी समझना चाहिये । भोलेपन में स्त्रियों का स्वभाव प्रसिद्ध हैं किंतु रेवती ज्ञान और विज्ञानकी महता श्रादर्श रही है। सारी प्रजा और राजाके भी कल्पित चमत्कार के मकर में श्राजानेपर तथा राजामन्त्री आदि के समझानेपर भी ज्ञात सम्यक्तस्वकी प्रती तिसे वह रंचमात्र भी विचलित नहीं होती । उसके विज्ञान की आदर्श महत्ता इसी से स्पष्ट है कि जब वहीं चुल्लक आहारार्थ रेवती यहां परीचणके लिये आता है तो वह अपने इस गुणमें आदर्श संतों द्वारा प्रशंसनीय उत्तीर्णता प्राप्त कर लेती हैं। पुरुष पात्रों में सबसे पहला अंजन चोर है । यह प्रसिद्ध है कि चोर स्वभावसे ही शंकाशील हुआ करता है फिर भी निःशंका आदर्श रही है। वह सोचता है कि जिनदत्त सेठ सम्यग्दृष्टि व्रती हैं, वह अन्यथा नहीं बोल सकता | उसका वह निःशंक श्रद्धान और क्षत्रपुत्रोचित साहस उसे सिद्धि प्राप्त करादेता हैं। इस कथा में माली के लड़केको कायरता और ललित की वीरता सज्जातीय गुणका विश्लेषण करदेती हैं ! जो कि परमनिःश्रेयसपदकी सिद्धि का एक बाह्य किन्तु श्रावश्यक साधन हैं । उद्दायन, राजा होकर भी ग्लान मुनि की अपने हाथसे परिचर्या करके और अपने ऊपर वमन करदेने पर भी अज्ञान भाव से संभावित अपने दोषदर्शन द्वारा गुरूपास्तिका उदाहरण बन जाता है जो इस बात की शिक्षादेता है कि सम्यग्दृष्टि जीव रasarees परमतपत्रियोंकी उपासना आदि में किस तरह निर्विचिकित्स रहा करता है। श्रुत और अवधिनेत्र के द्वारा सम्पूर्ण जगत् के व्यवहार को जानन और देखनेवाला धमरेश्वर जिसके rest air at और फिर देवों द्वारा की गई परीक्षामें उसी प्रकार जो सोचका सिद्ध हो उसको विवक्षित गुण में आदर्श और उदाहरणीय क्यों न माना जाय ? बनिया बुद्धिका कोई भी व्यक्ति अपनी असाधारण एवं सर्वाधिक प्रिय विभूति की देखरेख का काम किसी भी नवीन आये हुए अपरीक्षित व्यक्तिपर सहसा विश्वास करके नहीं छोड़ सकता । किन्तु जिमन्द्रभक्त व्यापारी वैश्य होकर भी वैसा करता है । केवल इसलिये किं उस ब्रह्मवेशी क्षुल्लक विषय दृढ विश्वास है कि यह देशयति हैं, इनपर शंकाका कोई कारण नहीं हैं। विश्वासघात होसकनेकी कल्पना भी उसे नहीं होती । और जब मालुम होता है कि में धीमें श्रागया तो सामान्यतया उसवेशपर अविश्वास न करके चुलकांशी चोरका वैयक्तिक अपराध समझकर उसे इसतरहसे युक्तिपूर्वक भगादेता हैं जिससे कि सर्वसाधारणको १- समीचीन धर्म के और उसके भारकोंके प्रति उसकी निःशक आस्तिकताका इससे पता लगता हूं। २- प्रतीति साथ २ कार्य करनेकी असाधारण रडता ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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