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________________ ............... थन्द्रिका टीका तेतीमा श्लोक जन्म धारण कराकर त्रैलोक्याधिपतित्वका भी अतिक्रमण करनेवाले निज शुद्धस्वरूपावस्थानके शासनकी योग्यतास अनन्त कालके लिए युक्त कर देना सम्यत्वका ही माहात्म्य है। यही कारण है कि प्रात्माको दुःखमय संसार परिणतिसे हटाकर अनन्त अच्याराध मुखमय समीचीन श्रवस्थामें परिणत कर देने में पूर्णतया समर्थ तीर्थरूप धर्म-रत्नत्रयमें सम्पग्दर्शनका ही सबसे प्रथम अधिकार, प्राधान्य और नेतृत्व है। प्रकृत कारिकाके व्याख्यानके प्रारम्भमें उत्थानिकाके समयपर विषयका सारांश माते हुए नीच गतें कही गई थी। शिगोंसे पहले दिन का कि-सम्यग्दर्शन ही शान चारित्र की समीचीनताका जनक है, इस कारिकार्य द्वारा युक्तिपूर्ण सालंकार भाषामें दृष्टांतपूर्वक अच्छी तरह किन्तु संक्षेप में स्पष्टीकरण किया जा चुका है। अब क्रमानुसार दूसरे विषयका कि यह सम्यग्दर्शन ही जीवको मोक्षमार्गमें मुख्यतया लमानवाला और उसमें स्थित रखनेवाला है, आचार्य स्पष्टीकरण करते हैं गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो; निर्मोही नेव मोहवान । ___ अनगारो गृही श्रेयान; निमोंहो मोहिनो मुनेः ॥३३॥ अर्थ-घरमे रहनेवाला यदि मोहरहित है तो वह मोक्षमार्गमें स्थित है। घरको छोड देनेवाला साधु यदि मोह सहित है तो वह मोक्षमार्गमें स्थित नहीं है । इसलिये मोही मनिसे निर्मोह गृहस्थ श्रेष्ठ है। प्रयोजन-इस कारिकाके सालंकार युक्तिपूर्ण और तुले हुए शब्दोंके द्वारा प्राचार्यका मभिप्राय एक अत्यावश्यक विषयपर नग्न सत्य प्रकाश डालकर सर्वसाधारणके हृदयमें विद्यमान प्रथया संभव बहुत बड़े भ्रम विपर्यास संशय यद्वा प्रज्ञानका निराकरण करना है। सर्व साधारण जीवोंकी समझ है अथवा सामान्यतया लोग ऐसा ही समझ सकते हैं कि हिंसा मादि पाप संसारक कारख है अथवा वे ही स्वयं संसार हैं । अतएव जो जीव इनका संपन करने हैं-त्याग नहीं करते वे मंसारमार्गी ही हैं संसारी ही हैं । और जो इनका परित्याग कर देते हैं। संसार और उसके मार्गसे पृथक ही हैं मोदमार्गी ही है अर्थात् इन पाप क्रियाओंका त्याग कर देना मात्र ही मोक्षमार्ग है। हिंसादिक पापोंकी संख्या सामान्यतया पांच पताई है। जैसा कि इसी ग्रन्थकी आगे चलकर कारिका नं. ४६ के द्वारा मालुम हो सकता है । इसमें हिंसा झूठ चोरी मैथुनसेवा और परिग्रह इन पांच भवद्य कर्मोको पाप प्रणालिकाके नामसे बढ़ाया है । किन्तु इनमें भी अन्तिम दो पाप-मैथुनसेवा और परिग्रह प्रधान हैं । जैसाकि उस कारिकाकी व्याख्यासे ध्यान में भा सकेगा । फलतः इन दो प्रधान पापोंका जहां तक त्याग नहीं होता अथवा अंशत: १-श्री अमृतचन्द्र आचार्यने अपने पुरुषार्थ सिद्धषु पायमें 4 पापोसे हिंसाको ही मुख्य पाप बताया है शेष पापोंको सोमें अन्तत किया है । पथा-आत्मपरिणामसिमरतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत्। मानवकमनाहि केवलमुखाहत शिष्यबोधाय ॥४२॥
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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