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________________ ૫૨ करडाका चार पर्यन्त अपनी सम्पूर्ण सफलताओंके लिये सम्यग्दर्शनको भी सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्रका सुख देखना पडता हैं | वीज कितना ही उत्तम क्यों न हो मट्टी उर्वरा भूमि और जल के बिना 1 सफल वृक्ष नहीं बन सकता । प्रकृत कारिकामें श्राचार्यश्रीने दृष्टांता गर्भित उपमा अलंकार के द्वारा यह सब अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है विद्वानोंको घटित कर लेना चाहिये । किन्तु यह सब होते हुये भी यह ध्यान देने योग्य विषय है कि यह सम्यग्दर्शन का प्रकरण है। यहां सम्यग्दर्शनकी जो असाधारण महत्ता है उसीकी तरफ दृष्टि दिलाई जारही है और उसीका ख्यापन किया जा रहा है फलतः यह जो कहा गया है वह रंचमात्र भी मिथ्या नहीं सर्व सत्य है कि ज्ञान और चारित्र यद्यपि मोक्षमार्गको सिद्धिमें सर्वथा आवश्यक हैं- उनके बिना मोच और उसके मार्ग - उपायकी सिद्धि नहीं होती और न हो सकती है फिर भी वे सम्यग्दशनके प्रतापसे ही प्रशस्त बन जानेपर - मोक्षमार्ग में नया जन्म धारण कर लेने पर हो इस तरहकी योग्यता सम्पन्न हुआ करते हैं। अन्यथा नहीं । ज्ञान जब तक सम्यक् नहीं होजाता तबतक वह स्वानुभूतिरूपको भी प्राप्त नहीं किया करता । और न तवतक स्वनुभूत्यावरण कर्मका क्षयोपशम होकर वह विशुद्धि ही प्रादुर्भूत हुआ करती है। और इसीलिये तब तक उसके द्वारा निज शुद्ध अखण्ड काज्ञिक सच्चिदानन्दमय अभिन्न आत्माकी अनुभूति - स्वानुभूति भी नहीं हुआ करती । इसी प्रकार चारित्र भी जबतक सम्यक् नहीं होजाता तबतक भले ही वह प्रतिपक्षी कपायोंके मन्द मन्दतर मन्दतम उदयके अन्तरंग निमित्तकी बलवत्चासे पापोंका परित्याग करके गृहप्रवृत श्रावक के अथवा गृहनिवृत्त उत्कृष्ट श्रावक के व्रतोंका यद्वा महान मुनिके योग्य महाव्रतों का पालन करके नवग्रैवेयक तक के योग्य पुख्यायु आदिका बंध करके पर संग्रह एवं उस पर प्रत्यय के प्रसाद से परम शुभ दिव्य किन्तु कादाचित्क — अस्थिर अभ्युदयको भी प्राप्त करते फिर भी वह संवर निर्जराके कारण रूपसे माने गये और बताये गये सामायिक आदि चारित्र रूपकी वारयकर पर निग्रही नहीं बन सकता ६ । फलतः ज्ञान और चारित्रको मोक्षमार्ग के कुलमें I २ – कैवल्यमेवमुक्त्यंगं स्वानुभूत्यैव तद्भवेत् । सा च श्रुतकसंस्कारमनसात्तः भुवं भजे ॥३-९॥ अतसंस्कृतं स्वमहसा स्वतस्त्रमाप्नोति मानसं क्रमशः । विहितोषपरिध्वगं शुद्धपति पयसा न कि बचन ॥३-३|| तथा अहो तस्य माहात्म्य यन्मुखं प्रेक्षतेतराम् उद्यतेऽतिशयाधाने फलसंसाधने च छन् । ||४-२०।। अन० ६० । ३--- वाग्भटालंक। रे अन् वयख्यापनं यत्र क्रियया स्वत्तदर्थयोः । दृतिं तमिति प्राहुरलंकारं मनीषिणः ॥४२॥ उपमानेन सादृश्यमुपमेयस्य यत्र सा । प्रत्ययाम्ययतुल्यार्थसमासै रुपमा मता ||४-५८॥ अन्न कारिकायाम् इव शब्द प्रयोगात् न प्रतिवस्तूपमा । ४ – 'छाहसत्तमेसु आसव की उक्तिके अनुसार पुण्य । श्रवके मुल्यतया कारण भूत इन अणुव्रत और महामतों का त० सू० के छठे सातवें अध्यायमें वर्णन किया गया है। ५ --संबर निर्जरा के कारणो में सामायिकादिका वर्णन में अध्याय में किया गया है। & - ६ – सम्यक्त्व के बाद ही ज्यों ज्यों चारित्रकी वृद्धि होती जाती है त्यों त्यों असंख्यातगुणी कर्म निरा के स्थान बढ़ते जाते हैं !
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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