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________________ لام afrat dint प्रथम लोक भी हैं तब चीतरागता के बदले निर्दोषता ही प्रधान और महान सिद्ध होती है । अतएव उसविशिष्ट धर्म को ही यहां बताना अधिक उचित एवं संगत प्रतीत होता है । ऊपरके कथन से यह बात भी समझ में आ सकती है कि जिस तरह नमरताके लिये बाह्य विभूति व्यभिचरित है उसी तरह पूर्ण प्रामाणिकता के लिये केवल वीतरागता भी छास्थोंमें भी पाये जाने के कारण व्यभिनति है। श्रवण श्रीवर्धमानवाके द्वारा जिस तीर्थप्रवर्त्तनरूप गुण का उन्लेख किया है उसकी पूर्ण प्रामाणिकता को बतानेके लिये केवल दीतरागता का ही निदर्शन पर्याप्त नहीं है, उसके साथ में पर्वज्ञता का भी उल्लेख करना आवश्यक है। यही कारण है कि प्रकृत कारिका के उत्तरावं ग्रन्थकार ने सर्वज्ञनाका वर्णन किया है। देशना की पूर्ण प्रामाणिकता के लिये जिन दो गुणों की वीरागता और सर्वाकी यावश्यकता है उनमें उत्पत्तिका क्रम भी ऐसाही हैं कि पूर्ण वीतरागता के होजाने पर ही सर्वज्ञता सिद्ध हुआ करती हैं। अत एव यहांपर भी वीतरागता का उल्लेख करके सर्वज्ञता का वर्णन किया गया है इसीलिये यह वर्णन क्रमानुगत है ! अात्माका असाधारण लक्षण रूप गुण चेतना है उसकी आगधमें तीन दशाएं बनाई गई हैं। कर्म फल चेतना, कर्म चेतना और ज्ञानचेतना | इनमें से कारिका के उत्तरार्ध में ज्ञान चेतना के जिस सर्वोत्कृष्ट - अन्तिमस्वरूपका निदर्शन है उसको दर्पणका दृष्टान्त देकर समझाया गया है। जिसका मतलब यह है कि जिस तरह दर्पण के सामने श्राये हुए सभी पदार्थ उसमें स्वयं प्रतिमासित होते हैं उसी प्रकार इस ज्ञान चेतनामें भी सभी लोक अलोक तथा उसके भीतर पाये जानेवाले द्रव्य तन्व पदार्थ और अस्तिकाय एवं गुण धर्म तथा त्रिकालवत समस्त द्रव्य पर्याय या अर्थ पर्यीयर विनाक्रमके - युगपत् प्रातिभासित हुआ करते हैं। जिसका भराय यह है कि उन भगवान की ज्ञान ना पूर्ण रूपमें और सदाकेलिये निर्विकार बन गई हैं तथा उसकी १- बारहवे गुणस्थानवर्ती निर्मन्थ हाजानं पर भी अमस्थ है यह पर असत्यवचनयोग आदि भी पाया जाता यथाप में वहा पर माइक अभावकं कारण असमर्थ ही हैं । और केवल ज्ञानावरण के कारण ही मान गये हैं। २कः किं प्राधान्येन चेतयंत इत्याह-- सर्वे कर्मफलं मुख्यभावन स्थावरारभसाः । सदार्थ चेतयन्त इस्त प्राणित्वा ज्ञानमेव च । २-३५ टीका- चेतयन्तेऽनुभवान् | ॐ ? स स्थावरा एकेन्द्रिया जाधाः शंभश्री कायिकादयः । किं त ? कर्मफलं सुखदुःखं । न । मुख्यभावन । तथा चेतयन्ते । के ? सा द्वीन्द्रियादयः । किं तत् ? कर्मफलम् । किंविशिष्ट' १ सकार्यम् । क्रियत इति कार्यं कर्म । बुद्धिपूर्वी व्यापार इत्यर्थः । तन सहि तम् । कार्यचेतना हि प्रवृत्तिनिवृत्तिकारणभूतक्रिया प्राधान्येनोत्पद्यमानः सुखदुःखपरिणामः । तथा चेतदन्ये के ? अस्तप्राणित्वाः प्राणित्वमतिक्रान्ता जीवाः किं ? ज्ञानमेव । ते हि व्यवहारंण जीवन्मुक्ताः परमार्थेन परम मुक्ताश्च मुक्ता एव हि निजकर्मफलत्वादत्यन्तकृतकृत्यत्वाच स्वतोऽव्यतिरिकस्वाभाविक सुखं ज्ञानतयन्ते । जीवन्मुक्तास्तु मुख्यभावेन ज्ञानं गौणतया त्वन्यदपि । ज्ञानादम्यभेदमह भितिचेतनं प्रज्ञानबेतना सा द्विविधा कर्म चेतना कर्मफलश्वेतना च । तत्र ज्ञानादन्योदम करोमीति चेतनं कर्म घेतना । ज्ञानादन्यमेषं चेतयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना सा वोभय्यपि जीवन्मुक्त गौणी । बुद्धिपूर्वक ऋतु स्वभोक्तृत्वयोइन्च्छेदात् ॥ अ०६०। ३- मनन्तशक्तियोंके पिंडरूप इसकी जो अबस्थाएँ होती है उनको हव्य पष और I ३
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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