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चंद्रिका दीका उन्नाव बीसारलोक मंगमें अनन्तमति, तीसरे अंगमें उद्दायन? राजा और चौथे अंगमें रेवती रानी दृष्टांतरूप मानी गई है। इसीप्रकार शेष चार अंगोंमें भी चार व्यक्ति प्रसिद्ध हैं । यथा--पांच में जिनेन्द्रमक्त, तत्पश्चात् छठे अंगमें वारिषेण और शेष सातये व आठवे अंगों में क्रमसे विष्णुकुमार और वनकुमार निदर्शनरूप मान गये हैं।
प्रयोजन-किसी भी एक सैद्धांतिक विषय का यदि दृष्टांतद्वारा स्पष्टीकरण कर दिया जाय तो वह अच्छीमरह समझमें आजाता है । इसीलिये कहा गया है कि "दृष्टान्तेहि स्फुटा मतिः २ यहांपर दृष्टान्त के ही अर्थमें आचार्यने लक्ष्य शब्दका प्रयोग किया है। दोनों का आशय एक ही है जैसा कि इन शब्दोंके अर्थयेही जाना जा सकता है। वादविवादकै अवसापर यदि शंत का प्रयोग न किया जाय तो हानि नहीं है, ऐसा होते हुए भी विषयके निदर्शनार्थ न्यायशास्त्र में भी अन्वय दृष्टांत और व्यतिरेक दृष्टान माने है । फिर जहां साधारण श्रद्धा बुद्धि रखनेवाले बुभुत्सु भव्यको हिनोपदेश के रहस्य का भलेप्रकार परिझान कराना है वहां तो दृष्टांत देना उचित और आवश्यक हो जाता है । यही कारण है कि सूक्ष्म अवतव्य सम्यग्दर्शनका और उसके अंगोंका पालन किमतरह करना चाहिप इसका परिज्ञान तना घटनाओं का वर्णन करके ही समझाया जा सकता है। और इसीलिए प्रत्येक अंगके पालन करने की शिक्षा देनेवाले माठाही अंगों में प्रसिद्ध आठ व्यक्तियों का नाम यहां बताया गया है । इन व्यक्तियोंकी कथा पडकर उन उन घटनाओंपर ध्यान देनेसे श्रोताओं को मालुम हो सकेगा कि उन उन अंगोंका पालन कब और किसतरह करना चाहिये । और यश अवसर उनका पालन करनेसे किमतरहका फल प्राप्त हुआ करता है।
शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ
नावत्--यह अव्यय है जो कि क्रम और प्रथम अर्थ बताता है । कभी कभी वाक्यालंकारमें भी इसका प्रयोग हुआ करता है। यद्यपि कोशमें इसके और भी अर्थ बताये हैं। परन्तु यहांपर नीनों अर्थ विवक्षित हैं। जिससे अभिप्राय यह निकलता है कि प्रकृत उपयुक्त पाठ अंगोमेसे क्रमानुसार पहले गर्ने जनचोर लक्ष्यका दृष्टांतभूत माना गया है ।
अंग-शब्दके भी शरीर, कारण आदि अनेक अर्थ होते हैं परन्तु यहांपर अवयव अथवा विमाग या अश अर्थ करना चाहिये।
___ ततः-शन्द दोनों कारिकाओं में मिलकर तीन जगह पाया है। अर्थ एक ही है।-पूर्व निर्दिष्ट के चाद | अर्थात अजनचोरके अनन्तर क्रमसे दूसरे में अनन्तमति, तीसरेमें उद्दावन, -जैन जगट ११-११-१४ अंक तीन में प्रकाशित एक लेखमें बताया है कि इतिहासकार ईस्वीसन से पूर्व (४५० से ४१३ ) उदयनका पटनामें राज्य स्वीकार करते हैं। परन्तु हमारी समझ से दोनो एक नहीं है और दृष्टांतभूत खदायन अधिक प्राचीन होना चाहिये । जैसाकि आगे दी हुई कथासे मालुम होना है कि वह भी वर्धमान भगवान के समवशरणमें जाकर दीक्षित होकर निर्वाणको गया है। -पत्र घामणी । ३-परितामुख अ०३ सू०४६ सै४४ ॥