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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
उनको जल मंत्र अक्षत पुष्य नैवेद्य दीप धूप फल एवं अर्घ समर्पण करना, श्रारती करना अथवा देवसेवा के लिए भूमि खेत गांव और अभिषेक के लिए गोदान आदि करना, मन्दिर में वेदी *वजापताका आदि देना, मंगलद्रव्य प्रातिहार्य यादिका निर्माण करना कराना या अर्पण करना आदि सब द्रव्यपूजा है । शरीर से खड़े होकर विनय करना, प्रदक्षिणा देना, प्रणाम या कायोत्सम्र्गादि करना वचनसे जप या स्तवन करना मनमें गुणोंका चितवन करना आदि भावपूजा है । केवली श्रुत संघ धर्म और उसके फलके विषय में मिध्यादृष्टियों द्वारा किये जानेवाले सभूत दोषोंके उद्भावन को सम्यग्दृष्टि सहन न करके उनका निराकरण किया करता है । देवादिके समक्ष या परोक्ष ऐसी कोई भी चेष्टा वह नहीं किया करता जो कि उनके प्रति विनयको सूचित करनेवाली हो। इसीका नाम अवझावर्जन अथवा आसादनाओं का परिहार कहते हैं ।
इनके सिवाय और भी सम्यग्दृष्टि के अनेक कार्य होते हैं जो कि सम्यक्त्वके कार्य होनेके कारण सम्यक्त्व के ही गुण अथवा स्वभाव कहे जा सकते हैं। क्योंकि जिस तरह सूर्यके उदयका प्रभाव प्रकृति प्रत्येक अंशपर पड़ता है उसीतरह सम्यक्त्व के सूर्य प्रकट होतेही जtant श्रद्धा रुचि प्रतीति और वाचिक कायिक व्यवहार में इसतरह का अपूर्व परिवर्तन हो जाया करता है जो कि उसको मोक्षमार्ग में बढ़ने के लिए उस्कठा एवं उत्साह के लिए प्रेरणा प्रदान किया करता है। अथवा शरीर के प्रत्येक अंशमें व्याप्त विषजनित मूल्य के दूर होतेही जिस तरह सर्वाश अपूर्ण स्फूर्ति आ जाती है उसीप्रकार मोह या मिथ्यात्वका आत्माके प्रत्येक अंशपर पडनेवाले प्रभावका अभाव होतेही जीवके सभी अंशों में मोक्षमार्गके अनुकूल परिवर्तन हो जाया करता है। राजा के सावधान होनेपर राज्यके सभी अंग अनुकूल कार्य करते हैं। निरोगता प्राप्त होनेपर शरीर ही अंग सबल हो जाते हैं उसीप्रकार सम्यक्त्वक उत्पन्न हो जानेपर सभी अंग सावधान और सबल होकर प्रतिपक्षां कर्मोंको दूर करनेके लिए प्रयत्नशील और आत्मशक्तियोंके पूर्ण विशुद्ध करने में समर्थ हो जाया करते हैं ।
सम्यग्दर्शनके आठ अंग हैं। इनमेंसे प्रत्येक अंगमें एक एक व्यक्तिका नाम आगममे ष्टान्तरूप से बताया गया | उन्हीं इतिहास प्रसिद्ध व्यक्तिका नाम यहांपर ग्रन्मकर्ता माचार्य बताते हैं । --- तावदंजनचौरोंगे ततोऽनन्तमतिः स्मृता । उद्दायनस्तृतीयेऽपि तुरीये रेवती मता ॥ १६ ॥ ततो जिनेन्द्रभक्काऽन्यो वारिषेणस्ततः परः १ । विष्णुश्व वज्रनामा व शेषयोर्लक्ष्यतां गताः २ ॥२०॥
अर्थ- आठ अ मोमेंसे सबसे पहले गये जन चोर और उसके बाद क्रमानुसार एस !---परं इत्यपि पाठः । २ष्ट्रांतस्थम् । ३--- प्रायः मुद्रित प्रतियों में "गती" ऐसा पाठ पाया जाता है परन्तु 'गताः' पाठ ही है।