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चंद्रिका टीका अठारहवां भोक जिसका कि विस्तृत स्वरूप मूलाचारादि ग्रन्थों में कियागया है । यहांतक सामर्थ्य प्राप्त होजाने पर फिर वह यथाख्यात चारित्ररूप अवस्थाको सिद्ध करने का प्रयन किया करता है जो कि संज्वलन कपाय के अभावसे सिद्ध होता है और जिसके कि साधनका संक्षिप्त संकत इसी ग्रन्थ के श्लोक नं. १० के उत्तरार्ध में किया गया है और विस्तृत उपदेश समयसार भादि शुद्ध आत्मा के स्वरूप का वर्णन करने वाले ग्रन्थों में किया गया है।
इस तरह विचार करने से मालम होगा कि सम्यग्दृष्टि जीन अपनी शुद्ध अवस्था के रिमें माने पर परम उत्साही होजाया करता है । जिस तरह मोहसप्तकके प्रभावसे दूर होते ही उसका ज्ञान निश्चित रूपसे सम्यक-विवेक पूर्ण होजाया करता है और दर्शन प्रायः शुद्धस्वात्मानुभूति के पूर्वरूपको धारण किया करता है, उसी तरह उसका वीयगुण समस्त प्रतिपक्षियोंको निवंश करके अपने शुद्ध साम्राज्यमें स्थिर होनेका दृढ संकल्प करलिया करता है उसकी अवस्था सीक परमसाम्राज्यको मिद्ध करनेकेलिये उद्यत हुए उस विजिगीषु चत्रपुत्र के समान हुआ करती है जो कि अपने लक्ष्यको सिद्ध किये विना उपरत नहीं हुआ करता ! हो सकता है कि प्रतिपक्षियों के प्राचन्यवश उसे कदाचित कुछ समय के लिय निधिनत भी होना पडे परन्तु यंतमें वह विजयधीको प्राप्त करके ही शान्त हुआ करता है। उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी प्रतिपक्षियोंसे भाक्रान्त अनन्तगुणरोसे भरी प्रान्मा-बसुधराको निश्कष्टक बनाकर-सिद्ध करके ही विराम लेता है. फिर चाहे उसे अपने इस लक्ष्य के पूर्ण करने में प्रतिपक्षियोंके उदय के प्राबल्य वश कदाचित् अर्धपद्रल परिवर्तनतकर लिये भी रुकना ही क्यों न पडे | वा शत्र घोंपर विजय प्राप्त करनेवाले चक्रवर्ती के सेनापति के समान उसका अन्तः शत्र प्रोको ध्वस्त करने के लिये उद्यत हुया उत्साह अप्रतिहत एवं अनिर्वाय ही हुआ करता है।
किन्तु इसका यह श्रानय भी नहीं है कि वह अपनी अवस्थाके विपय में मानी और असा. बधान हुआ करता है । फलतः अवस्थाके अनुसार यह अपने उन सभी कर्तव्यों का पालन करने में प्रमादी नहीं हुआ करना जो कि उसे अपने लक्ष्यतक पहुंचने में किसी भी मंशमें सहायक हो। यद्यपि इस तरहके कतव्य अनेक हैं फिर भी यहां उन में से कुछ का उल्लेख करते हैं
उदाहरणार्थ- भक्ति, पूजा, अवसंवादका निराकरण, प्रासादनामी का परिहार और अवसावर्जन | ये पांच कार्य हैं जो कि सम्यग्दर्शन में विशुद्धि के वर्धक अथवा साधक हैं। उसमें योग्यतानुसार- तग्नम रूपमें ये सभी बात पाई जाती हैं।
धर्म और अरिहंतादि पंचपरमेष्ठी, उनकी प्रतिमा और जिनालय तथा द्रव्यभावरूप श्रत यादिमे विशुद्ध अनुराग का होना भक्ति है । श्रद्धापूर्वक अपनी भिन्न अथवा अभिन्न योग्य व उचित द्रदय को अरिहनादिकी सेवामें विधि सहित अर्पण करने का नाम पूजा है । यह दो प्रकार की है---एक द्रव्यपूजा दूसरी भाव पूजा । जिसमें अपनेसे भिन्न वस्तुओं का समर्पण किया जाय वह द्रव्यपूजा है। भगवान का विधिपूर्वक जल घी दुध दही माथि आदिके द्वारा अभिषेक करना और
१-भगदर्शन।