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________________ १६२ হোসাগকাথাও पूजा की अपेक्षाके अनुरागके होनेको संवेग, संसार शरीर और भोगों में वैराग्यको निर्वेद, अपने द्वारा हुए किसी भी दुर्वृत्तके विषय में पश्चात्ताप करने को निन्दा, अपने घटित दुर्व्यवहारका प्राचार्य के सम्मुख कथन करनेको गर्दा, अपने पदके विरोधी अनन्तानुबन्धी आदि कपायोंका उद्रेक न होनदेनकी उपशम, अरिहंत सिद्ध श्रादि पूज्यवर्ग की द्रव्य भावरूप पूजा करनेको भक्ति, अपने सधर्माऑपर आई आपत्तियों के दूर करनको वात्सल्य, संक्निष्ट भूख प्यास प्रादि से पीडित जीवों के विषय में मनके दयाद् होनको अनुकम्या कहते हैं। ये भी सम्यग्दृष्टि के आठ गुण है। परन्तु इनका ऊपरके निःशंकितादिक आठ गुणों में यथायोग्य अन्तर्भाव होजाता है। ये संवेगादिक इस बात को सूचित करते हैं कि सम्यग्दर्शन के होजाने पर जीवकी सांसारिक विषयों में से सराग भावना नष्ट होकर मोक्षमाग विषयक बन जाया पारती है। क्योंकि कपाय ४ हैं। इनमें से सम्यग्दर्शन के होने पर सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी कपाय छूट जाता है। जिसके फल स्वरूप उस कषायका विषय अनन्त न रहकर सावधिक विषयमात्र रह जाया करता है | अनन्त नाम संसारका है। संसार और उसके कारणों में उसकी रुचि न रहकर उसके विपरीत मोक्ष और उसके कारणों में रुचि हो जाया करती है । संसार एवं उसके कारणों में अरुचि तथा हेय बुद्धि होजाने पर भी जिसके कारण अभी उनका त्याग करने में असमर्थ है वह अप्रत्याख्यानावरण कपाय है। यहां प्रश्न हो सकता है कि जब सम्यग्दृष्टि जीव संसार और उसके कारणो का प्रत्यास्यान करने में अंशमात्र भी समर्थ नहीं है तब उसकी अरुचिका फल क्या है ? उत्तर-यह ऊपर बताया जा चुका है कि सम्यग्दृष्टि के ४१ कर्म प्रकृतियोंका बन्ध नहीं हुश्रा करता। इससे समझ लेना चाहिये कि उसकी ऐसे किसी भी विषय में-मिथ्यात्व अन्याय या अभक्ष्यभक्षणादि में प्रकृति नहीं छुपा करनी जिमसे कि उन कर्मोमें से किसीका भी बन्ध सम्भव हो। इस अप्रवृत्तिका अन्तरंग कारण, अनन्ताबन्धी कषाय के उदयमें न रहने से स्वभावतः ही उन विषयों में अरुचिका होजाना है । इसका अर्थ यह नहीं है कि शेष विषयों में उसको रुचि है। प्राशय यह है कि अभी उनको छोड़ने की सामथ्र्य नहीं है। इसका भी अभिप्राय यद् है कि रुचि शब्द श्रद्राका भी वाचक है और अपने योग्य रचित विषय को प्राप्त करने की इच्छाका भी वाचक है। अनन्तानुबन्धी के न रहने से संसार पर्याय और उसके कारणों में रुचि---श्रद्धा नहीं रहती। यह अरुति उसको अपने शुद्ध प्रात्मस्वरूप के विपरीत सभी भावों में है। किन्तु अप्रत्यास्यानायरण कषाय के नष्ट होनेपर-उदय योग्य नरहजानंपर जीव में वह सामर्थ्य प्रकट हो जाया करती है जिससे कि यह अंशतः संसार शरीर और भोगों को छोडकर एक देशरूप उस चारित्र को धारण किया करता है जिसका कि इस ग्रन्थमें वर्णन कियागया है । प्रत्याख्यानावरण का उदय न रहनपर उनका पूर्ण परित्याग करने में जब समर्थ होजाता है तब उस पूर्ण चारित्रको धारण किया करता है जिसका कि इसी ग्रन्थ में आनायका ध्यान एखकर अवकाचारका वर्णन करनेसे पूर्व कारिका नं० ४७ से ५० में निर्देश कियागया है और
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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