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________________ १२४ काकाचार शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ - कापथ - पुत्तिविरुद्ध खोटे अथवा अहितकर उपायका नाम कापथ हैं। मार्ग उपाय साधन य --- सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। जो वस्तु स्वरूप के विरुद्ध हैं वे सब कुमार्ग हैं । उन्हीको कापथ कहते हैं । श्रत एव जितने एकान्तबाद जितने विपर्यस्त कथन हैं, संशयात्मक या संशयको उत्पन्न करने वाले निरूपण हैं वे सब मिथ्या देशनाएं हैं और उनके द्वारा जो कल्याणका मार्ग साया जाता है वह यथार्थ नहीं है-कापथ हैं। उससे जीवोंका वास्तविक हित सिद्ध न होकर अस ही हो सकता है । यही कारण है कि श्राचार्यने कापथ का विशेषण “दुःखानां पथि" 'दुःखोंके मार्ग' ऐसा दिया है । अत एवं यह कहना भी अयुक्त होगा कि जो २ दुःखोंके मार्ग साधन या उपाय हैं वे सभी वापथ हैं। वस्तुरूप की इन अयुक्त अथवा विरुद्ध मान्यताओं के आचार्यों ने मुख्यतया ३६३ तीन सौ त्र सठ भेद आगम में बताये हैं। i कापथस्थ — ऊपर बतायेगये कापथपर जो यह विश्वास रखते हैं कि वह यथार्थ है सत्य है और हित है वे सभी कापथस्थ हैं । इनके सिवाय जो उसका जानकर या विना जाने देखा देखी समर्थन करते हैं और उसके अनुसार आचरण करते कराते हैं वे भी कापथस्थ हैं। तथा जिनके निमित्त से उक्त कापथका प्रचार होता है वे भले ही अचेतन क्यों न हों वे भी कापथका श्राश्रय होने के कारण कापथ ही है और उनके जो माननेवाले हैं वे भी सब कापथस्थ ही हैं। ऐसा समझना चाहिये । असम्मति यद्यपि सम्मति शब्द का अर्थ प्रसिद्ध है कि किसी भी विषयमें समान अभिप्राय प्रकट करना, समान रूपमें उसविषयकी मान्यता रखना या दिखाना । अथवा उसको स्वीकार करना । किन्तु यह शब्द सम् पूर्वक मनु अत्रोने धातुसे क्ति प्रत्यय होकर बनता है। अत एव सम् का अर्थ समान करनेके बदले समीचीन- प्रशस्त अर्थ करके सम्मति का अर्थ सम्यग्ज्ञान किया जाय तो अधिक उचित होगा । सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण माना है । इसलिये सम्मतिका अर्थ प्रमाण न मानना होना चाहिये फलतः कापथ और कापथस्थों को प्रमाण न माननेसे--उनके विविध श्राकर्षणों के सम्मुख आनेपर भी उनमें मोहित न होनेसे सम्यग्दर्शन का यह चौथा अंग प्रसिद्ध होता है । प्रमाण मानना न मानना यह मनका विषय है । श्रत एव इस शब्द से मुख्यतया मन में मोहित न होना श्रर्थ ही व्यक्त होता है किन्तु मनके अनुसार शरीर और वचन से भी मूढ भाव दिखाने के लिये असंपृक्ति और अनुकीर्ति शब्दका भी प्रयोग किया गया है। तात्पर्य ---- यह कि देव शास्त्र गुरु के स्वरूप के सिवाय पदार्थ और श्राचरणके स्वरूप में भी अनेक प्रकार की मिथ्या मान्यताएं हैं। सैद्धान्तिक मिथ्यामान्यताएं ३६३ आगममें बताई हैं जो कि भावरूप से अनादि हैं । द्रव्यरूपसे इनका बाह्य प्रचार हुंडावसर्पिणी कालके निमित्तसे आज १ - असोदि सर्द किरिया अकिरिया च बहुचुलसी दो । सप्तट्टणाणीण वैणियाणं तु बशीसं ॥७६॥ गो-कट किन्तु इन ३६२ मिथ्यामतों के सिवाय भी देवैकान्त पौरुषकान्त आदि अनेक एकन्त रूप मिया मान्यताएं भी प्रचलित हैं। देखो गो० क० गोधानं श्रादि । २- जैसा कि इसी कारिकाकी टिप्पणी नं० १ में गिनाया है। गोम००गाथा गं
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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