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चंद्रिका टीका प्रथम श्येक दोष और प्रावरणकी हानि प्रकट करनेवाले दोनों वाक्यों का प्राशय ऊपर लिखा गया हैं। जिसका संक्षिप्त अभिप्राय इतना ही होता है कि जो वीतराग है , निर्दोष है और सर्या है वही जीवों के हिनरूप मार्गका वक्ता होने के कारण कृतज्ञ विद्वानोंद्वारा नमस्ए हो सकता है। किन्तु यहां पर प्रश्न हो सकता है कि जो भी सर्वज्ञ होते हैं वे नियम से जिस तरह वीतराग
और निर्दोष होते हैं का उसीतरह नियमसे हितोपदेशी भी होते ही हैं ? इसके उत्तर में जो विशेषता है यह समझ लेनी चाहिये । वह इस प्रकार है कि
सर्वज्ञ जो होने है च नियमसे पीतराग एवं निर्दोष होते हैं, इस का कारण उपर लिखा जा चुका है उससे मालूम हो सकता है कि चीवरागता मीनताका कारण है और निर्दोषता कार्य है। मोहनीय कर्म सर्वथा अभावसे जो वीतरागता उत्पन्न होती है वह सर्गज्ञता के लिये समर्थ कारण है । इसी तरह निर्दोषताकेलिये वीतरामना एवं सर्वज्ञता समर्थ कारण है। समर्थ कारण के मिलने पर नियमसे कार्य उत्पन्न हुआ करता है । अत एव म झताके साथ वीतरागता और निषिता की व्याप्ति बन सकती है कहा जा सकता है कि जो २.सर्वज्ञ है वह २ नियम से वीतराग है और निर्दोष है। किन्तु हितोपदेशकनाके साथ इस तरहकी पाप्ति नहीं है। क्योंकि प्रानका वचन के साथ नियत सम्बन्ध नहीं है । जो २ ज्ञानवान् हो बह २ वक्ता भी हो तो ऐसा नियम नहीं है । हां यह अवश्य कहा जा सकता है और यह सन मान्य होना चाहिये कि किसी भी वक्ताके वचनकी प्रामाणिकता उसकी वीतरागता निर्दोपता और ज्ञानपर निर्भर है। जो व्यक्ति जितना अधिक वीतराग और निदाप होनके साथ साथ सम्यग्जानी है उसके बचन भी उतनेही अधिक प्रमाणभूत हुआ करते है। अत एव जो पूर्ण बीतगम है, पूर्ण निर्दोष और पूर्ण ज्ञानवान् है उसके वचन भी पूर्णतया प्रमाण ही हैं।
ठीक है, परन्तु इस कथन से तो इतना ही मालूम होता है कि पूर्णतया प्रमाणरूप वचन उसके ही माने जा सकते हैं--जो सर्वाज्ञ है और वीतराग नथा निदोप है परन्तु इस से यह तो स्पष्ट नहीं होता कि जो जो इसतरहके गर्मज्ञ वीतराग परमात्मा हैं वे वक्ता भी हो हो। श्रत एवं संभव है कि कोई सर्वज्ञ वीतराग निर्दोष परमात्मा होकर भी ऐसा भी हो जो कि हितोपदेशो न हो यो क्या ऐसे ही है ?
सत्य है, एमा ही है जहांतक सामान्यतया सर्वज्ञताका विचार है यहां तक तो ऐसा ही है कि सभी सर्वज्ञ वत्ता नहीं हुआ करते इसके सिवाय यह भी है कि सर्वज्ञ होकर जो बक्ता होते हैं: १--आगमम अन्तकृन् केवली भी बनाये है कि प्रत्येक तीर्थकर के समय १०-१० हुआ करते है जिन वर्णन अन्तकृशांग में किया गया है ये घोर उपसर्ग के द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में चले जाते हैं राजवार्तिक में मिद्धों के अनेक भेद बताये हैं उससे भी कंवलियों के भेदों का पता मालूम हो सकता है, सर म्वरूप में पंटोडरमलजी ने अरिहंनों के भेद इस प्रकार बताये हैं १-पंचकल्याणक वाले तीर्थ र २. सो कल्याणक वाले तीर्थंकर, ३-द्रो कल्याणक बाले तीर्थकर, ४--सातिशय केवली, ५--सामान्य केवली, ६.